ऐसा ही ताजा विवादित बयान कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने गीता प्रेस को गांधी शांति पुरस्कार दिए जाने को लेकर दिया है। रमेश ने कहा कि गीता प्रेस को गांधी शांति पुरस्कार देना गोडसे और सावरकर को सम्मान देने जैसा है। सब जानते हैं कि गीता प्रेस पिछले सौ साल सेे करोड़ों किताबें प्रकाशित कर चुकी है। अपनी किताबों के माध्यम से समाज में संस्कार परोसने व चरित्र निर्माण का काम भी यह संस्था कर रही है। गीता प्रेस के कामकाज को लेकर आज तक कोई विवाद भी पैदा नहीं हुआ। ऐसी संस्था को लेकर जब यह बयान आता है तो यह भी सवाल उठता है कि क्या जयराम रमेश के इस बयान का कांग्र्रेस पार्टी समर्थन करती है? यह सवाल इसलिए भी क्योंकि जयराम रमेश कांग्रेस के जिम्मेदार नेता हैं और केन्द्र में मंत्री भी रह चुके हैं। इस तरह के बयान सामाजिक समरसता को कमजोर तो करते ही हैं, धर्म, आस्था और संस्कारों को बढ़ावा देने वाली संस्थाओं को हतोत्साहित भी करते हैं। वैसे भी हर धर्म व उससे जुड़ी संस्थाओं को अपने कामकाज के प्रचार-प्रसार का पूरा हक है। गीता प्रेस के बारे में देश के तमाम बड़े नेताओं और धर्मगुरुओं की राय सकारात्मक ही रही है। संस्था ने सकारात्मकता की एक ओर मिसाल पेश करते हुए किसी प्रकार का दान स्वीकार न करने के अपने सिद्धांत के तहत एक करोड़ रुपए की पुरस्कार राशि लेने से इनकार कर दिया है। साथ ही सरकार से अनुरोध किया है कि वह इस राशि को कहीं और खर्च करे।
राजनेताओं को राजनीतिक दलों की कार्यशैली या उनके कार्यक्रमों को लेकर आपत्ति हो सकती है, पर किसी भी संस्था को बेवजह विवादों में घसीटना अशोभनीय ही कहा जाएगा। यह सही है कि आज के दौर में राजनीतिक दलों व नेताओं की रणनीति वोट बैंक की चिंता और सुर्खियां बटोरने की आतुरता के इर्द-गिर्द घूमती है। लेकिन राजनेताओं से यह तो अपेक्षा की जाती है कि वे बयान सोच-समझकर दें। बयान देकर फिर वापस ले लेने से भी जो नुकसान हुआ है उसकी भरपाई आसान नहीं होती। राजनीतिक दलों को अपने प्रशिक्षण शिविरों में नेताओं को बयान देते वक्त संयम रखने की नसीहत भी देनी चाहिए।