जीवन का केन्द्र मन है। इच्छाओं का केन्द्र है। इच्छा से ही जीवन की गतिविधियां शुरू होती हैं। किन्तु मन बड़ा चंचल है। प्रवाह में बहता रहता है। इसको नियंत्रित रखने के लिए कृष्ण कहते हैं-
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।। (6.35)
चंचल मन अभ्यास और वैराग्य से वश में हो सकता है। नहीं तो हवा को बांधने की तरह कठिन है।
मन के अभ्यास के लिए कृष्ण ने एक क्रम साधना का मार्ग दिया है। ‘मन और बुद्धि को मुझ में लगा, तू मुझ में ही निवास करेगा। इसमें यदि समर्थ नहीं है तो अभ्यास द्वारा मुझ तक पहुंचने का प्रयास कर। अभ्यास में भी असमर्थ है तो मेरे निमित्त कर्म कर। अभ्यास स्थूल क्रिया का अंग है। निमित्त होकर कर्म करना भक्ति मार्ग है। इसमें ज्ञान भी है और कर्म भी। यदि यह सब भी नहीं करता तो मन-बुद्धि पर नियंत्रण करके ”कर्मों का फल त्याग’ कर दे।’ समर्पण भाव का चरम है यह।
अभ्यास का आरम्भ शरीर को साधने से होता है। अस्वस्थ शरीर में श्वास-प्रश्वास, खांस, धांस, उबास जैसे अनेक प्रकार के व्यवधान आते हैं। छींक, सिरदर्द, मल-मूत्र त्याग का दबाव आदि अनेक कर्म शरीर को स्थिर नहीं रहने देते। इसके लिए यम-नियम-आसन-प्राणायाम के अभ्यास कराये जाते हैं। प्राणायाम का अभ्यास शरीर और मन दोनों के नियंत्रण में काम आता है। श्वास-प्रश्वास और प्राणायाम एक नहीं है। प्राणायाम जीवन है। प्राणों के घर्षण से ही वैश्वानर अग्नि प्रतिष्ठित रहता है, ताप नियंत्रित होता है, मन में प्राकृत कामनाओं का उदय होता है। तंत्र क्षेत्र में प्राणायाम से जुड़ी अनेक क्रियाएं सूक्ष्म जगत में प्रवेश का द्वार खोलती हैं। विचारों पर अकुंश लगता है।
प्राण और मन साथ रहते हैं। मन यदि सृष्टि से जुड़ा रहना चाहता है तो प्राण शरीर में गतिमान रहते हैं। मन के विचार जीव-जगत से जुड़े रहते हैं। भस्त्रा-कपालभाति जैसी क्रियाओं की सहायता से मन ऊपर उठता है। मुक्ति की दिशा में आगे बढ़ता है। आनन्द खोजने लगता है। यह बात कहने में आसान लगती है, करना सहज नहीं है। क्यों? क्योंकि अभ्यास स्थूल जगत का प्रयास मात्र है। आत्मा की साधना में प्रयास का निषेध है। प्रयास का अर्थ है- आप अभी बाहर ही बैठे हैं। स्वयं की क्रियाओं को देख रहे हैं। ध्यान का अर्थ स्थूल को छोडऩा और सूक्ष्म में प्रवेश करना। इसका भी अभ्यास होता अवश्य है।
समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिर:।
संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्।। (6.13)
स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चौवान्तरे भ्रवो:।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ।। (5.27)
यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायण:।
विगतेच्छाभयक्रोधो य: सदा मुक्त एव स:।। (5.28)
अर्थात् काया-सिर-गले को समान रूप अचल-स्थिर करके दृष्टि नासिका के अग्रभाग पर टिका लें। चित्त को केन्द्रित करें- आज्ञाचक्र पर- भू्र-मध्य केन्द्र पर।
बाहर के विषयों का चिन्तन छोड़कर मन को वश में करके नेत्रों की दृष्टि भृकुटी मध्य करके, श्वास मन्द-स्थिर करके, जो मुनि शान्त है, वह सदा ही मुक्त है।
कितनी स्पष्ट व्याख्या है- नेत्रों को नासिका के अग्र भाग पर और चित्त को भू्र-मध्य पर टिकाना है। भू्र-मध्य को तीसरा नेत्र कहा है। दोनों नेत्र नीचे देखते-देखते बन्द हो जाएंगे। देखना ठहर जाएगा, तब तीसरा नेत्र खुलेगा। वह ऊपर देखता है, सूक्ष्म को देखता है। आत्मा स्थूल नेत्रों से दिखाई नहीं देता। प्राणायाम के द्वारा बाहर की हवा बाहर ही रहे, नेत्र अपलक भ्रूमध्य में टिके रहें। प्राण और अपान समान रहें। नाक के भीतर ही वायु संचरण करे। इससे सारी इन्द्रियां संयत रहेंगी। बुद्धि और मन भी संयत हो जाएंगे। यही जीवनमुक्ति है (श्या.च. लाहिड़ी)।
शरीर की स्थिति, मेरुदण्ड, गला, सिर सीधा रहता है। गले को कुछ दबाने-नीचे झुकाने से शरीर का कम्पन ठहर जाता है, दृष्टि भू्र-मध्य में टिक जाती है। नेत्र मूंदकर चित्त को आज्ञाचक्र में रखने से मन आत्मा में समाहित हो जाता है। आधे खुले नेत्रों से कूटस्थ का ध्यान करने पर शून्य भाव पैदा हो जाता है।
इस बात को यूं समझें- बाहरी विषय ही इन्द्रियों द्वारा प्रवेश करते हैं। ये ही सुख-दु:ख का कारण बनते हैं। इनको मन में प्रविष्ट न होने देना पहली बात है। आंख यद्यपि भृकुटियों के मध्य में ही रहती है, किन्तु दोनों नेत्रों की किरणें भिन्न-भिन्न दिशा से रूप ग्रहण करती है। दोनों को एक ही सीध में लाना ही भू्रमध्य दृष्टि है। नासिकाग्र भाग पर दोनों ही रश्मियों को मिला देने से चित्त स्थिर हो जाता है। प्राणवृत्ति सदा ऊपर की ओर जाया करती हैं, अपान वृत्ति नीचे की ओर। दोनों प्राण ही शरीर धारण के मुख्य हेतु हैं।
दोनों की विशेष शक्ति से भीतर का वायु नाक से बाहर-भीतर जाता-आता है। प्राणायाम द्वारा दोनों की गति समान (कुंभक) हो जाती है। इन उपायों से बुद्धि, मन, इन्द्रियों की वृत्तियां ठहर जाती हैं। कामनाएं ठहर जाती हैं। आत्मा अपने स्वरूप में- महन्मन में- स्थिर हो जाता है।
हमारे दोनों भाग-स्थूल शरीर और अदृश्य आत्मा का योग किस प्रकार संभव होता है। मन की नीचे की दिशा में जाने वाले इन्द्रिय मन और सर्वेंद्रिय मन की गतियों पर नियंत्रण करने पर ही बाहरी जगत की ओर की गति शून्यता को प्राप्त होती है। दूसरी ओर गति करने के लिए यह पहली आवश्यकता है। आंखों का बाहर देखना तक बन्द हो गया। श्वास-प्रश्वास ठहर-सा गया। प्राणों की गति से मन दूसरी ओर बढऩे लगा। यही मुक्ति साक्षी आनन्द-विज्ञान-मन का मार्ग है। शरीर क्षरणशील है, आत्मा शाश्वत है। शरीर के रहते हुए ही आत्मा की ओर गति संभव है। मुक्ति संभव है।
हृदय-केन्द्र से चारों ओर समान रूप से आत्मरश्मियां फैलती रहती है-प्रकाश पुंज के समान। अत: हृदय समत्व योग में समाहित माना गया है। हृदय से शरीर तक शरीर स्थान तथा शरीर स्थान से बाहरी विषयों तक संसार स्थान कहलाता है। शरीर (इन्द्रिय) स्थान से संसार स्थान के मध्य आसक्त होना मोह है। संसार स्थान से हटना द्वेष है । शरीर में मग्न रहना राग है, हटना द्वेष है। हृदय स्थान में प्रतिष्ठित रहना ही राग-द्वेष-मोह तीनों का अभाव है। यही वैराग्य है। समत्व योग है। अभ्यास से कर्म क्षेत्र को छोड़कर वैराग्य में प्रतिष्ठित होना ही गीता का बुद्धियोग है।
क्रमश:

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