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खेती—व्यापार के लिए चुनौती बनता ‘रेत का दानव’

रेत के दानव को दूर रखने के लिए जमीन क्षरण रोकने के प्रयासों के साथ-साथ खेती के नए उपायों में संयुक्त राष्ट्र भी मदद कर रहा है। भारत में भी आमजन को जागरूक कर उनकी सहभागिता से बड़े स्तर पर पौधरोपण करना होगा। इससे न केवल वन क्षेत्र संरक्षित होगा, बल्कि नए वन क्षेत्र भी तैयार होंगे। कृषि में आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल भी फलदायी साबित होगा, क्योंकि जब जैविक उर्वरकों का उपयोग होगा और कम जल से खेती होगी, तो मिट्टी की उर्वरता भी बढ़ेगी।

Jun 16, 2023 / 10:07 pm

Patrika Desk

खेती—व्यापार के लिए चुनौती बनता 'रेत का दानव'

खेती—व्यापार के लिए चुनौती बनता ‘रेत का दानव’

डॉ. शिव सिंह राठौड़
भूगर्भशास्त्री और पूर्व कार्यवाहक अध्यक्ष, राजस्थान लोक
सेवा आयोग

दुनिया का तैंतीस फीसदी से ज्यादा भू-भाग मरुस्थलीकरण से प्रभावित है। इसकी बड़ी वजह यह रही कि समय के साथ जलवायु में बदलाव की वजह से बारिश कम होनी शुरू हुई और वनस्पति तथा जीव लुप्त होने लगे तो ऐसे इलाके मरुस्थल में तब्दील हो गए। इसकी सबसे बड़ी वजह जलवायु परिवर्तन ही है जिसके कारण भूमि क्षरण से कई समस्याएं पैदा होती जा रही हैं। ये समस्याएं वैश्विक मुद्दा तब बन जाती हैं, जब क्षेत्र में वर्षा की कमी व तापमान में वृद्धि के कारण वनस्पति तो कम होती ही है, चट्टानें छोटे-छोटे कणों में बदल जाती हैं ओर वाष्पीकरण बढऩे से भूमि की लवणता भी बढ़ जाती है। रही-सही कसर इंसानों द्वारा जंगल नष्ट किए जाने के बढ़ते मामलों ने पूरी कर दी है।
चिंता की बात यह है कि दुनिया के ३३ फीसदी भू-भाग में रहने वाले ३.२ अरब लोग मरुस्थलीकरण से प्रभावित हैं। अकेले भारत की बात करें तो थार रेगिस्तान कुल 2 लाख 38 हजार 254 वर्ग किलोमीटर से अधिक का क्षेत्र कवर करता है। यह रेगिस्तान भारत- पाकिस्तान के बीच एक प्राकृतिक सीमा बनाता है। थार रेगिस्तान समूचे भारत में करीब पौने दो लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में राजस्थान, गुजरात, पंजाब व हरियाणा तक में फैला हुआ है। रेगिस्तान का विस्तार और न हो इसके लिए हर बार सरकारी स्तर पर कई योजनाएं बनती रही हैं। लेकिन बड़ी समस्या यह है कि हम खुद रेगिस्तान को न्योता दे रहे हैं। एक तथ्य यह भी है कि मरुस्थल का विस्तार प्राकृतिक रूप से तो होता ही है, इंसान की फितरत भी ऐसे भू-भाग का विस्तार करने में आगे है। अत्यधिक खेती व चराई के अलावा पेड़ों की अंधाधुंध कटाई एवं जनसंख्या दबाव, मानवजनित मरुस्थलीकरण के प्रमुख कारणों में शामिल हैं। वहीं प्राकृतिक आपदाएं, पानी का कटाव एवं मिट्टी का विस्थापन वे प्राकृतिक कारण हैं, जिनकी वजह से मरु क्षेत्र का विस्तार होता जा रहा है। यह फैलाव नुकसानदायक इसलिए है, क्योंकि मरुस्थलीकरण की वजह से भूमि की जैविक क्षमता कमजोर हो जाती है। अकेले भारत में ही नहीं दुनिया के दूसरे देशों में भी मरुस्थल के क्षेत्र में लगातार बढ़ोतरी हो रही है, अफ्रीका का 40 प्रतिशत, एशिया का 33 प्रतिशत, लैटिन अमरीका का 20 प्रतिशत भाग, मरुस्थलीकरण से प्रभावित है। जॉर्डन, लेबनान, सोमालिया, इथोपिया, दक्षिण सूडान, चाड, माली, मोरिटेनिया व पश्चिम सहारा में रेगिस्तान का संकट ज्यादा है। बढ़ते मरुस्थलीकरण की चिंता इसलिए ज्यादा होनी चाहिए, क्योंकि इस संपूर्ण प्रक्रिया का पर्यावरण पर विपरीत असर तो पड़ता ही है, दुनिया के देशों का अर्थतंत्र भी गड़बड़ा जाता है। वनस्पति का नुकसान, भू-विविधता, तथा जैव-विविधता में परिवर्तन से प्रजातियां विलुप्त होना तो आम है। इसके साथ ही जिस तरह से हमें एक के बाद एक प्राकृतिक आपदाओं से दो-चार होना पड़ता है, उसका कारण भी रेगिस्तान का विस्तार ही है। जाहिर है जब रेगिस्तानी क्षेत्र बढ़ेगा, तो खेती से आय कम होगी और व्यापार के लिए भी प्रतिकूल परिस्थितियां बनने लगती हैं। नतीजतन जीवन का जोखिम भी सदैव बना रहता है। संयुक्त राष्ट्र कन्वेन्शन टू कॉम्बैट डेजर्टिफिकेशन (यू.एन.सी.सी.डी.) में सरकार द्वारा दिए गए आंकड़ों के अनुसार भारत ने पिछले एक दशक में घास के क्षेत्र का 31 प्रतिशत हिस्सा खो दिया है। भारत का करीब 29 प्रतिशत क्षेत्र किसी न किसी तरह से भूमि की गुणवत्ता को खराब कर रहा है। यह बात सही है कि इस गंभीर समस्या को रोकने के लिए बरसों से अनेक उपाय किए जा रहे हैं। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यही है कि जनसहभागिता से सार्थक प्रयास करने से ही मरुस्थल का फैलाव रोका जा सकता है। सबसे बड़ी जरूरत जल संरक्षण की है। साथ ही सिंचाई विधियों में भी सुधार करना होगा। इसके अलावा पारिस्थितिकी तंत्र को पुन: मजबूत करने की भी आवश्यकता है। भारत जैसे देश के लिए तो यह जरूरी है कि ग्रामीण क्षेत्रों में सुनियोजित रोजगार के अवसर विकसित हों तथा सरकारी भूमि में खनन पर रोक लगाई जाए। इसकी बड़ी वजह है अवैध खनन। जो वर्षा का पानी हमारे प्राकृतिक व परंपरागत जल स्रोतों को भरा करता था, वह गैरकानूनी खनन से जल स्रोतों के केचमेंट एरिया को समाप्त कर देता है। भूमिगत जल का स्तर लगातार कम होने का बड़ा कारण भी यही है।
मरुस्थलीय क्षेत्र के प्राकृतिक संसाधनों को पुन: जीवित कर डेजर्ट डेवलपमेंट कार्यक्रम पर कार्य करने की आवश्यकता है। अफ्रीकी यूनियन के ग्रेट ग्रीन वॉल कार्यक्रम को भी इन्हीं प्रयासों का हिस्सा कहा जा सकता है। रेत के दानव को दूर रखने के लिए जमीन क्षरण रोकने के प्रयासों के साथ-साथ खेती के नए उपायों में संयुक्त राष्ट्र भी मदद कर रहा है। भारत में भी आमजन को जागरूक कर उनकी सहभागिता से बड़े स्तर पर पौधरोपण करना होगा। इससे न केवल वन क्षेत्र संरक्षित होगा, बल्कि नए वन क्षेत्र भी तैयार होंगे। कृषि में आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल भी फलदायी साबित होगा, क्योंकि जब जैविक उर्वरकों का उपयोग होगा और कम जल से खेती होगी, तो मिट्टी की उर्वरता भी बढ़ेगी।

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