करने होंगे समुदायों के बीच विश्वास बढ़ाने के प्रयास
सामुदायिक आधार पर बंटे राजनीतिक दलों के नेताओं से भी यह अपेक्षा की जाती है कि वे राज्य के विकास के मद्देनजर शांति स्थापना में सहयोग दें। राहत के फौरी इंतजाम काफी नहीं हैं। जरूरी है प्रभावित लोगों के साथ बातचीत और उन्हें सुरक्षा प्रदान करना। साथ ही विस्थापितों का पुनर्वास और उग्रवादियों पर नियंत्रण। सुरक्षा बलों से लूटे गए हथियारों की वापसी भी बेहद जरूरी है।


करने होंगे समुदायों के बीच विश्वास बढ़ाने के प्रयास
ज्ञानेंद्र रावत
वरिष्ठ पत्रकार एवं
लेखक हम दावा कुछ भी करें हकीकत यह है कि केन्द्र सरकार की लाख कोशिशों के बावजूद मणिपुर का संकट हल होने का नाम नहीं ले रहा है। वहां हिंसा लगातार जारी है। यह इस बात का सबूत है कि समस्या लगातार विषम होती जा रही है। केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह की चार दिवसीय मणिपुर की यात्रा के दौरान सर्वदलीय बैठक भी हुई। उन्होंने मैतई समुदाय के लोगों से भेंट की। हिंसा प्रभावित क्षेत्र में आदिवासी समुदाय के नेताओं तथा कुकी विधायकों, आइटीएलएफ के प्रतिनिधियों के साथ ही चिन-कुकी-मिजो समुदायों के साथ कई सफल बैठकों से इस आशा को बल मिला था कि अब इस समस्या का समाधान हो जाएगा। इसके बाद बहुतेरे उग्रवादियों द्वारा हथियार डालने की घटनाएं एक अच्छी दिशा की ओर संकेत कर रही थीं। लेकिन, हिंसा रुकने का नाम ही नहीं ले रही। हालात इस बात के गवाह हैं कि इंफाल से बाहर जाने वाली कोई सड़क भी सुरक्षित नहीं है। वहां संविधान के अनुच्छेद 355 को लागू किया जा चुका है, जिसके बाद कानून-व्यवस्था केंद्र के हाथ में आ गई है।
यदि राज्य के इतिहास और हालात पर नजर डालें तो पता चलता है कि मणिपुर और राज्यों से काफी कुछ अलग है। यहां रहने-बसने वाली जनजातियां में बहुतेरी उप जनजातियां हैं, जिनमें हमेशा से तनाव और हिंसा का इतिहास रहा है। 1997 में कुकी और उसकी उप जनजाति पाइटी का संघर्ष जगजाहिर है। यहां म्यांमार से भागकर आए चिन नामक लोगों की बहुतायत है। इनकी तादाद कुकी इलाकों में सबसे ज्यादा है। इनमें आपस मेंं संबंध भी है। चूराचांदपुर इलाके की आबादी पहले मात्र 60 हजार थी, जो अब तकरीबन 6 लाख हो गई है। इससे मैतई समुदाय असुरक्षित महसूस करने लगा है। जातीय संघर्ष के पीछे यह भी अहम वजह है। ऐसे हालात को अलगाववादी उग्रवादी गुटों ने खूब भुनाया। इनमें चीन की भूमिका अहम रही। उसने उनको न केवल हथियारों का प्रशिक्षण दिया, बल्कि आधुनिक हथियारों से लैस भी किया गया। फिर इन सबके बीच संघर्ष कोई नया नहीं है। लगभग एक-डेढ़-दशक पहले वहां शाम के चार बजे ही कफ्र्यू लग जाया करता था। वहां ठहरने का कोई अच्छा होटल नहीं था और आवागमन व सुरक्षित परिवहन तो कल्पना से परे था। पर्यटक तो नाममात्र के दिखते थे। कारोबार था नहीं। नौजवान शिक्षा हासिल करने दिल्ली -बेंगलूरु जाते थे। लेकिन बीते कुछेक सालों की यहां की प्रगति काबिले तारीफ है। अब यहां आवागमन सुगम हुआ है, सड़कें हैं, परिवहन सुविधा है, कुछेक होटल भी है और कुछ कारोबार भी शुरू हुए हैं। हां जो विकास हुआ, वह राजधानी इम्फाल के आसपास ही दिखाई देता था, सुदूर अंचल उससे अछूते थे। बीते बरसों में हालात बदले। नतीजतन मणिपुर को ‘न्यू रिफाम्र्स सेफ स्टेटÓ माना गया। लेकिन जनजातियों के बीच आपसी तनाव, प्रतिद्वद्विता, प्रतिस्पर्धा और संघर्ष यथावत जारी रहा। हां इस बीच येनकेन प्रकारेण हथियारबंद गुटों ने अपनी ताकत बढ़ाई जिनका उन्होंने न केवल इस बार प्रदर्शन किया बल्कि इस्तेमाल भी भरपूर किया। यहां मैतई समुदाय के साथ एक विसंगति भी है। वे मणिपुर में बहुसंख्यक हैं, लेकिन वे केवल इंफाल घाटी में ही रहने को विवश हैं। उन पर राज्य के पर्वतीय अंचल में जमीन खरीदने और खेती करने पर कानूनन पाबंदी है। इन पहाड़ क्षेत्रों में कुकी जो ईसाई बन चुके हैं और नगाओं का वर्चस्व है। कुकी और नगा समुदाय के इंफाल घाटी में रहने-बसने पर कोई पाबंदी नहीं है। गृहमंत्री अमित शाह का कहना है कि मणिपुर की शांति सरकार की प्राथमिकता है, तो सबसे पहले समुदायों के बीच फैले हुए अविश्वास के माहौल को खत्म करना होगा। सामुदायिक आधार पर बंटे राजनीतिक दलों के नेताओं से भी यह अपेक्षा की जाती है कि वे राज्य के विकास के मद्देनजर शांति स्थापना में सहयोग दें। राहत के फौरी इंतजाम काफी नहीं हैं। जरूरी है प्रभावित लोगों के साथ बातचीत और उन्हें सुरक्षा प्रदान करना। साथ ही विस्थापितों का पुनर्वास और उग्रवादियों पर नियंत्रण। सुरक्षा बलों से लूटे गए हथियारों की वापसी भी बेहद जरूरी है।
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