आदिवासी क्षेत की परंपरा
मिर्जापुर के राजगढ़ और सोनभद्र के घोरावल, शाहगंज से लगने वाले इलाकों के आदिवासी, कोल समाज सहित अन्य लोग होली पर्व का त्यौहार अपनी पुरानी परंपराओं, रीति-रिवाज के अनुसार मनाते हैं। यह केमिकल युक्त रंगों की बजाय केशु और पलाश के फूलों से तैयार प्राकृतिक रंगों का उपयोग करते हैं. आदिवासी समाज के लोग बताते हैं कि इससे शरीर पर कोई कु-प्रभाव नहीं पड़ता है, जबकि केमिकल युक्त रंगों का कु-प्रभाव पड़ता है. प्राकृतिक रंगों के साथ-साथ कहीं-कहीं रंगों के बजाय फूलों की होली भी खेली जाती है।वरिष्ठ पत्रकार दिनेश सिंह पटेल बताते हैं कि ‘वैसे अब धीरे-धीरे यह परंपरा विलुप्त भी होती जा रही है आधुनिकता की चादर ने इसे भी अपने से ढक लिया है. वह बताते हैं कि कुछ इलाकों में आदिवासी समाज के लोग कंकड़ मार होली भी खेलते हैं. एक दूसरे पर मिट्टी के कंकड़ों का प्रहार कर हंसी-ठिटौली के साथ यह अपने रीति-रिवाज के मुताबिक मिलजुल कर होली मनाते रहे हैं अब यह भी परंपरा धीरे-धीरे विलुप्त हो चुकी है।