संपादकीय : सेहत और आत्मसम्मान दोनों की चिंता जरूरी
मासिक धर्म प्रत्येक महिला के जीवन का एक सामान्य और प्राकृतिक हिस्सा है। बालिकाओं की सेहत की चिंता करते हुए एक ओर जहां शिक्षण संस्थाओं में उन्हें सैनिटरी पेड नि:शुल्क उपलब्ध कराए जाने पर जोर दिया जा रहा है वहीं मासिक धर्म के दौरान उन्हें अपमानित करने की घटनाएं संवेदनहीनता की पराकाष्ठा ही कही जाएगी। […]


मासिक धर्म प्रत्येक महिला के जीवन का एक सामान्य और प्राकृतिक हिस्सा है। बालिकाओं की सेहत की चिंता करते हुए एक ओर जहां शिक्षण संस्थाओं में उन्हें सैनिटरी पेड नि:शुल्क उपलब्ध कराए जाने पर जोर दिया जा रहा है वहीं मासिक धर्म के दौरान उन्हें अपमानित करने की घटनाएं संवेदनहीनता की पराकाष्ठा ही कही जाएगी। हाल ही तमिलनाडु के कोयंबटूर में एक निजी स्कूल में हुई शर्मनाक घटना ने समाज में मासिक धर्म को लेकर व्याप्त अंधविश्वासों और भेदभाव को फिर से उजागर किया है। वहां मासिक धर्म की वजह से एक दलित छात्रा को परीक्षा के दौरान कक्षा के बजाय बाहर सीढिय़ों पर बैठने को मजबूर किया गया। यह घटना न केवल शिक्षा के मंदिर में संवेदनशीलता की कमी को दर्शाती है, बल्कि हमारे समाज में गहरी जड़ें जमाए लैंगिक असमानता और जातिगत भेदभाव की कड़वी सच्चाई को भी उजागर करती है जो सामाजिक न्याय के रास्ते में बड़ी बाधा है।
देखा जाए तो यह घटना केवल एक स्कूल तक ही सीमित नहीं बल्कि समाज में मासिक धर्म के प्रति रूढिग़त सोच का प्रतीक भी है। सवाल यह है कि क्या हमारी शिक्षा व्यवस्था में बच्चों, खासकर बालिकाओं की गरिमा और मानसिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता नहीं दी जानी चाहिए? साथ ही सवाल यह भी कि ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए शिक्षकों की भर्ती से पहले उनके मनोवैज्ञानिक परीक्षण के पैरामीटर क्यों नहीं बनाए जाने चाहिए? यह कोई पहला मामला नहीं है। देशभर में मासिक धर्म को लेकर कई बार छात्राओं के साथ अपमानजनक व्यवहार की खबरें सामने आती रही हैं। कभी उन्हें स्कूल में प्रवेश से रोका जाता है, तो कभी अलग-थलग कर दिया जाता है। स्वीडन और नॉर्वे जैसे देशों में स्कूलों में मासिक धर्म शिक्षा को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया गया है। वहां शिक्षकों को लैंगिक संवेदनशीलता और समावेशी व्यवहार के लिए विशेष प्रशिक्षण दिया जाता है। यूनाइटेड किंगडम में स्कूलों में मुफ्त सैनिटरी उत्पाद उपलब्ध कराए जाते हैं, ताकि छात्राओं को असुविधा न हो। कहने को तो हमारे यहां भी मुफ्त सैनिटरी पेड उपलब्ध कराने के सरकारें दावे करती हैं लेकिन इसके इंतजाम भी नाकाफी हैं।
शिक्षा के मंदिरों में किसी के आत्सम्मान के साथ खिलवाड़ नहीं हो, इसके लिए सबसे ज्यादा जरूरत इस बात की है कि शिक्षकों की भर्ती प्रक्रिया में भी मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन प्रक्रिया को अनिवार्य किया जाए। स्कूलों में मासिक धर्म को लेकर स्वच्छ माहौल व सुविधाएं सुनिश्चित करना होगा। साथ ही इस दिशा में जागरूकता कार्यक्रमों की भी जरूरत है। ऐसे मामले सामने आने पर दोषी शिक्षकों का निलंबन या कोई और सजा देना ही काफी नहीं। बच्चों का भविष्य संवारने वाले शिक्षकों से संवेदनशीलता और समझ की अपेक्षा सब करते हैं। शिक्षा का मंदिर वह स्थान होना चाहिए, जहां हर बच्चा सम्मान और सुरक्षा के साथ बड़ा हो।
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