कहां से शुरू हुआ और कैसे बना खास?
भगोरिया का इतिहास 450 साल पुराना है। इसकी शुरुआत झाबुआ जिले के भगोर गांव से हुई थी, जिसे भृगु ऋषि की तपस्थली माना जाता है। कालांतर में जब गांव उजड़ गया, तब यहां के लोग रतलाम बस गए, जिससे कहावत बनी— “भाग्यो भगोर और बसियो रतलाम।” भगोरिया का नाम भगवान शिव और देवी पार्वती के नाम पर पड़ा, जिसे स्थानीय भाषा में “भव-गौरी” कहा जाता था। बाद में भग्गा नायक शासकों ने इस परंपरा को बढ़ावा दिया और होली से पहले लगने वाले हाट मेलों में यह पर्व मनाया जाने लगा। आज यह उत्सव झाबुआ, आलीराजपुर, रतलाम, धार, बड़वानी और खरगोन तक पहुंच चुका है।
मांडू का भगोरिया: जहां विदेशी भी झूमने आते हैं
मांडू का भगोरिया खास इसलिए भी है क्योंकि यहां देश-विदेश से हजारों पर्यटक इस पर्व में शामिल होने आते हैं। ब्रिटिश वायसराय लॉर्ड कर्जन जब 1902 में मांडू आए थे, तब उनके स्वागत में तवली महल में भगोरिया उत्सव आयोजित किया गया था। इससे प्रभावित होकर उन्होंने इसे बड़े स्तर पर मनाने की घोषणा की थी।
आज भी जामी मस्जिद और अशर्फी महल के चौक में महलों के बीच यह उत्सव इतिहास और संस्कृति का अद्भुत संगम पेश करता है। मांदल की थाप और बांसुरी की धुन पर देशी-विदेशी सैलानी आदिवासी नर्तकों के साथ झूमते नजर आते हैं।
रंग-बिरंगी पोशाकों में मांदल दल देंगे प्रस्तुति
भगोरिया में झाबुआ, आलीराजपुर और निमाड़ के 40 से अधिक गांवों के मांदल दल शामिल होते हैं। पारंपरिक आदिवासी वेशभूषा में सजे युवा-युवतियां महीनों पहले से इस उत्सव की तैयारियां शुरू कर देते हैं। अब यह उत्सव सिर्फ आदिवासी अंचल तक सीमित नहीं रहा, बल्कि गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस की झांकियों में भी इसे शामिल किया जाने लगा है।
कहां-कहां लगेगा भगोरिया मेला?
शुक्रवार से झाबुआ और आलीराजपुर जिले के भगोर, बेकल्दा, मांडली, कालीदेवी, कट्ठीवाड़ा, वालपुर और उदयगढ़ सहित 60 स्थानों पर भगोरिया मेले आयोजित किए जाएंगे। यह उत्सव सिर्फ एक मेले से कहीं बढ़कर है। यह आदिवासी संस्कृति, प्रेम, उल्लास और पारंपरिक जीवनशैली का उत्सव है, जो हर साल और रंगीन होता जा रहा है। ढोल-नगाड़ों की गूंज और मांदल की थाप पर झूमने को तैयार हो जाइए, क्योंकि भगोरिया का खुमार चढ़ने वाला है!