कृषि को प्राथमिकता देने का अभिप्राय यह है कि जीवन की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए यही हितकर उपाय है। कृषि एवं जीवन की अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पानी ही श्रेष्ठतम पदार्थ है। वेदों में ‘सर्वमापों मयं जगत’ कहा गया है अर्थात यह जगत पानी से ही उत्पन्न हुआ है, पानी में ही स्थित है और पानी में ही विलीन हो जाएगा। लोक व्यवहार में कहा भी जाता है- ‘जल ही जीवन है’। जल का एक नाम जीवन भी है। वेद के इस उद्घोष के बावजूद हमने पानी के बजाए आग को अधिक महत्व दिया। पानी में अग्रि ही निहित है किन्तु रासायनिक खाद तो विशुद्ध अग्नि है। एक बार तो लगता है कि वह जमीन का उर्वरा बनाता है परंतु अंतत: ऊसर बनाकर ही दम लेगा। हमारी जमीन बिल्कुल बेकार न हो जाए इसके लिए हमें अब भी विचार करना चाहिए कि रासायनिक खाद का उपयोग एकदम बंद कर दें। आने वाले दिनों में हमें पानी के ही अकाल का सामना करना पड़ेगा। आशंका तो यहां तक बताई जा रही है कि यदि अगला महायुद्ध हुआ तो पानी के लिए ही होगा। पानी के संबंध में हमें विस्तार से विचार करना होगा। सर्वोच्च प्राथमिकता यह हो कि वर्तमान में पानी की जो व्यवस्था है वह सुरक्षित रहे। तालाबों की रक्षा और रखरखाव को कानूनी रूप दे दिया जाए और ग्राम पंचायतों पर उसका जिम्मा रखा जाए। हमारे देश में प्राय: प्रत्येक गांव में तालाब होते आए हैं। जिनका कुछ वर्षों में लोप होता रहा है। तालाबों के साथ ही पीने के पानी के लिए पनघट और कुएं बने होते हैं। पानी के नल लग जाने के बावजूद पनघटों की रक्षा होनी चाहिए। तालाबों के आगौर या जलग्रहण क्षेत्रों में किसी प्रकार के अवरोध पर दंड की व्यवस्था की जाए। तालाबों के अलावा पानी के नियमित या बरसात बहाव में बाधा नहीं पहुुचाई जाए। प्राय: देखा गया है कि सडक़ें- रेलें बिछाते समय नालों के बहाव पर ध्यान नहीं दिया जाता। इन नालों के बहाव से जमीन का जो स्वरूप और उपयोग होता आया है वह बंद हो जाता है। हमें बरसाती पानी का उपयोग साल भर करने की कोई नियमित व्यवस्था करनी चाहिए। भूतल जल का सर्वेक्षण कर उसका भी उपयोग करना चाहिए। कहने का अभिप्राय है कि पानी को हमारी अर्थनीति का अंग बना लेना चाहिए। (20 सितम्बर 1995 के अंक में ‘अर्थव्यवस्था के उपेक्षित पहलू’ आलेख से )
रोजगार और पानी का समान महत्व
राजस्थान के चूरू जिले की सबसे बड़ी समस्या है। यहां के लोगों ने अपने आपको कुदरत की ‘देन’ के साथ किस तरह साध लिया है। जिले के लोगों की आधी जनशक्ति और आधी दिनचर्या पानी भरने में लगी हुई है। रोजगार और पानी यहां समान महत्व रखते हैं। इस जिले के गांव-गांव में पानी की एक कहानी है, पानी की कविता है और पानी की एक संस्कृति है। इसी तरह गांव-गांव में पानी के गीत बने हुए हैं। पानी का अभाव यहां गहराई से व्याप्त है। लोगों के रहन-सहन का सारा तरीका ही पानी की कमी के हिसाब से बदल गया है। कहते हैं कि सभ्यताएं नदी-घाटियों या नदी किनारे पैदा हुईं है। लेकिन वह सभ्यता और संस्कृति है जो बिना पानी के ही बालू रेत में पैदा हुई और टिकी हुई है और पनप भी रही है। चूरू ही क्यों पूरे थार के रेगिस्तान पर यही बात लागू होती है। (कुलिश जी यात्रा वृत्तांत आधारित पुस्तक ‘मैं देखता चला गया’ में ‘पानी की तलाश’ शीर्षक आलेख के अंश)
पानी के बल चलते-चलते आप थक जाते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि आध्यात्मिक आपोबल के कारण प्रतिष्ठित रहने वाला शारीरिक प्राण क्षीण हो जाता है। गतिधर्मा प्राण के शिथिल होते ही आप थक जाते हैं। तनिक विश्राम के बाद सर्वव्यापक वही आपोबल आपके शरीर में प्रवेश करके शरीर के अवयवों को शक्ति प्रदान कर देता है और आप पुन: चलने लगते हैं। सर्वमापोमय जगत् के सिद्धांत के अनुसार यह आपोबल अध्यात्म, अधिभूत और अधिदैव में सर्वत्र व्याप्त हैं। इसी कारण पानी में तीनों बल विद्यमान है। सिंचन कर्म में जायाभाव है और आप्तिभाव भी प्रत्यक्ष है। धाराबल और आप्तिभाव भी प्रत्यक्ष है, धारारूप है और व्याप्त है। ( ‘वेद विज्ञान’ पुस्तक से)