प्राचीन भारतीय जीवनशैली में ‘प्रकृति के साथ सह-अस्तित्व’ का विचारप्रमुख रहा है। चाहे वह तुलसी का पौधा घर में लगाना, गौ माता को भोजन देना, मिट्टी के बर्तनों का उपयोग या फिर पत्तों की थाली में भोजन करना — इन सभी में पर्यावरण संरक्षण की भावना निहित रही है। त्योहारों पर प्राकृतिक रंगों से होली खेलना, दीयों से दीपावली मनाना, और पीपल, नीम जैसे वृक्षों की पूजा करना, हमारी पारंपरिक पर्यावरण-संवेदनशील सोच का प्रमाण हैं।
लेकिन आज आधुनिकता की दौड़ में हम अक्सर सह-अस्तित्व, संवेदनशीलता, और जवाबदेहीजैसे अपने पारंपरिक मूल्यों को पीछे छोड़ देते हैं। वास्तविकता यह है कि हम गौ माता को भोजन तोकराते हैं, पर उसी भोजन को प्लास्टिक की थैलियों या थालियों में रखकर उनके सामने छोड़ देते हैं। ये थैलियां अक्सर गौ माता और अन्य पशुओं द्वारा निगली जाती हैं, जिससे उनके स्वास्थ्य को गंभीर खतरा होता है। होली रंगों का त्योहार है, लेकिन जब हम उसमें केमिकल रंगों का उपयोग करते हैं — और दुर्भाग्यवश उन्हें निर्दोष पशुओं पर भी फेंकते हैं — तो वह त्योहार एक अनजाने अत्याचार में बदल जाता है। वे पशु बोल नहीं सकते, लेकिन उनका शरीर भी तकलीफ महसूस करता है। हाल हीमें शीतलाष्टमी के अवसर पर यह देखना दुखद था कि शीतला माता की पूजा के बाद महिलाएं भोजन-प्रसाद और होली के रंगों सड़क पर ही छोड़ गईं, जिसे आवारा पशुओं ने खा लिया। यह श्रद्धा और कर्तव्य के बीच की विडम्बना को उजागर करता है। क्या हम ऐसी अनदेखी को रोक सकते हैं ।
हमें अपनी परंपराओं की मूल भावना को समझकर उन्हें नए रूप में अपनाना होगा। जैसे कि विवाहया धार्मिक आयोजनों में प्लास्टिक की बजाय मिट्टी या पत्तों के बर्तन, फूलों की सजावट,बायोडिग्रेडेबल सामग्री का प्रयोग। त्योहारों को ‘इको-फ्रेंडली’ तरीके से मनाना अब केवल एकविकल्प नहीं, बल्कि आवश्यकता है। आज जब पूरी दुनिया ‘सस्टेनेबिलिटी’ की बात कर रही है, तो हमें गर्व होना चाहिए कि हमारे पूर्वजों ने यह राह बहुत पहले ही दिखा दी थी। हमें बस उस ज्ञान कोफिर से अपनाना है और अगली पीढ़ी को सिखाना है कि हमारी संस्कृति और पर्यावरण एक-दूसरे के पूरक हैं।
निष्कर्षतः, यदि हम अपनी रीति-रिवाजों की आत्मा को समझें और उन्हें आज के संदर्भ में ‘हरित’ दृष्टिकोण के साथ अपनाएं, तो हम न केवल अपनी संस्कृति को जीवित रख पाएंगे, बल्कि आनेवाली पीढ़ियों के लिए एक बेहतर पर्यावरण भी छोड़ सकेंगे।