हाल ही में पत्रिका में एक समाचार छपा था-‘हार से कांग्रेस हैरान, नाकारा पदाधिकारियों की होगी छुट्टी।’ उम्मीद यह भी जताई है कि एक माह में पहचान करके नए चेहरे लाए जाएंगे। इसमें दो समस्याएं आएंगी- पहली यह कि जिन्होंने पाला-पोसा हो उन्हें बुरा कौन बताए? और दूसरी यह कि कार्रवाई के अन्त में बचेगा कौन? आलाकमान के आदेश जारी करते ही प्रक्रिया भी शुरू हो चुकी। कारण वही है जो प्रत्येक संस्था की गिरावट में बने रहते हैं। फिर प्रत्येक व्यक्ति/देश का भी अपना भविष्य होता है।
प्रकृति का एक नियम है-व्यक्ति अपने किए का फल स्वयं ही भोगता है। जैसा आप दूसरों के साथ करते हैं, वही लौटकर आपके पास आता है। अत: कांग्रेस को पहले यह चिन्तन करना चाहिए कि पिछले 75 सालों में उसने देश को क्या दिया। उत्तर तो इसी प्रश्न में निहित है। देश सदा लेने वाला रहा, कांग्रेस सदा देने वाली बनी रही। दोनों एक नहीं थे। लोकतंत्र में तीनों पाये-विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका, तीनों ही देने वाले बने रहे। देश का हिस्सा नहीं बने। कार्यपालिका और कुछ सीमा तक न्यायपालिका तो आज भी भारतीय चिन्तन, भारतीय संस्कृति और देश के विकास में भागीदारी से दूर ही हैं। अंग्रेजी संस्कृति के मोह ने उन्हें सत्ताभोगी और जनता से निरपेक्ष बना रखा है। कार्यपालिका तो अंग्रेजों की भांति दोनों हाथों से लूटने में लगी हुई है। कांग्रेस ने उनको इसी दिशा में प्रशिक्षित किया है।
कांग्रेस के बड़े निर्णय, कानून, संशोधन तथा सामाजिक व्यवहार सत्ता के परिप्रेक्ष्य में अधिक रहे। नेता भाषण देने वाले और कार्यकर्ता सेवादल के रूप में। बडे़ नेता जमीनी हकीकत से सदा दूर रहे। अंग्रेजी कानूनों और निर्णय को, शिक्षा नीति को, तुष्टिकरण को देश की संस्कृति से दूर ही रखा। गांधीजी के समय से ही कांग्रेस तुष्टिकरण की नाव पर सवार रही। नेहरू के समय उनकी शेख अब्दुला से नजदीकियां, इंदिरा गांधी का फिरोज गांधी से विवाह और सोनिया गांधी का संगठन पर एकाधिकार तथा राहुल-प्रियंका का भारतीय सांस्कृतिक धरातल से ज्यादा जुड़ाव नहीं होना जैसे कारण रहे जिन्होंने कांग्रेस को जनजीवन में प्रवेश नहीं करने दिया।
सिमट चुके कार्यकर्ता
आज भी कोई बड़ा नेता कार्यकर्ता की भाषा नहीं बोलता, जनता के बीच कार्य नहीं करता, अंग्रेजों की तरह सत्ताधीश रहना चाहता है। कांग्रेस का जनाधार आजादी के काल में गांधी-नेहरू के वातावरण ने तैयार किया था। कांग्रेस ने उसे भोगा तो सहीे, किन्तु सींचा नहीं। सारे फल खा लिए गए। अब पत्ते पीले पड़ने लगे, झड़ने लगे। अब कोई बांगबां (माली) भी नहीं बचा जो राष्ट्रहित में कांग्रेस को पुन: हरा-भरा करके दिखा दे। पार्टी अपनी चिन्ता से बड़ी नहीं होती, राष्ट्र को समर्पित होकर ऊपर उठती है। कांग्रेस के शीर्ष में सत्ताभाव है, समर्पण और त्याग का अभाव है। कार्यकर्ता सिमट चुके। जो कांग्रेस को चला रहे हैं, उनसे ही कांग्रेस छुटकारा चाह रही है। नए कार्यकर्ता, करोड़ों की संख्या में, कहां से आएंगे, कौन तैयार करेगा, इनता धन कहां से आएगा। सबसे महत्वपूर्ण बात है-प्राण कौन फूंकेगा? कांग्रेस शीर्ष भारतीय दृष्टि से पूर्ण निष्प्राण है। राजनेता और राजनीति का एकमात्र लक्ष्य राष्ट्र का उत्थान होता है। इस देश का यह दुर्भाग्य रहा है कि जिन नेताओं और दलों को जनता ने सिर-आंखों पर बिठाया, समय के साथ परिवार के स्वार्थ तक सिमट गए। माया-ममता-लालू-मुलायम आदि के दलों के नेता आज अपना गल्ला गिनने में ही व्यस्त हैं। आपातकाल के बाद कांग्रेस भी उसी पटरी पर चढ़ गई। राष्ट्र चिन्तन और कांग्रेस की जीवन-शैली गौण हो गए। चर्चा का केन्द्र गांधी परिवार रह गया। खरगे का कांग्रेस अध्यक्ष बन जाना लाचारी थी। कांग्रेस को नए सिरे से भारतीय संस्कृति से, जन जीवन से जोड़ पाना सहज नहीं है। गांधी परिवार को आदेश कौन दे पाएगा?
गांधी परिवार में दो पतंगे उड़ रही हैं-राहुल और प्रियंका। जब तक सोनिया गांधी की हवा है, ये उड़ती रहेंगी। बाद में कौन उड़ाएगा, कौन लूटेगा, समय बताएगा।
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