नोटा के प्रावधान होने के बावजूद बिना चुनाव कराए किसी प्रत्याशी को निर्विरोध निर्वाचित घोषित करने को चुनौती देने वाली याचिका की सुनवाई के दौरान कोर्ट का यह सुझाव काफी अहम है कि ‘नोटा’ को एक काल्पनिक प्रत्याशी माना जाए या विजेता उम्मीदवार के लिए न्यूनतम वोट प्रतिशत की अनिवार्यता लागू की जाए। कोर्ट ने कहा कि नोटा प्रावधान के बावजूद बिना चुनाव कराए किसी प्रत्याशी को निर्विरोध विजेता घोषित करना लोकतांत्रिक सिद्धांतों के खिलाफ हो सकता है।
सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी ने ‘नोटा’ और निर्विरोध चुनावों की मौजूदा प्रक्रिया प्रासंगिकता पर बहस छेड़ दी है। लोकतंत्र में प्रत्येक मतदाता की कीमत समान आंकी जाती है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश से ही वर्ष 2013 से लागू किया गया नोटा प्रावधान मतदाताओं को यह अधिकार देता है कि वे किसी भी उम्मीदवार को पसंद न करने पर यह विकल्प चुन सकते हैं। इस प्रावधान का पिछले सालों में बड़ी संख्या में मतदाताओं ने इस्तेमाल भी किया। कई मौकों पर तो नोटा के वोट उम्मीदवारों की हार-जीत के अंतर से भी ज्यादा सामने आए।
नोटा प्रावधान को मजबूती इसलिए नहीं मिल पाई है क्योंकि नोटा को वर्तमान में केवल एक मत के रूप में गिना जाता है, न कि किसी प्रत्याशी के रूप में। सुप्रीम कोर्ट का तर्क है कि यदि नोटा को प्रत्याशी माना जाए, तो निर्विरोध घोषणा की स्थिति में भी मतदान अनिवार्य होगा। इससे मतदाताओं को अपनी असहमति दर्ज करने का मौका मिलेगा, जो लोकतांत्रिक प्रक्रिया को और पारदर्शी बनाएगा। विजेता प्रत्याशी के लिए न्यूनतम वोट प्रतिशत की अनिवार्यता का सुझाव भी तार्किक है। यदि एक उम्मीदवार को विजेता घोषित करने के लिए न्यूनतम मतों की आवश्यकता हो, तो यह सुनिश्चित हो सकेगा कि विजेता को जनता का पर्याप्त समर्थन प्राप्त है। अभी इसकी बाध्यता नहीं होने से उम्मीदवारों में सर्वाधिक वोट हासिल करने वाला ही विजेता घोषित हो जाता है, भले ही उसे पांच से दस फीसदी वोट ही मिले हों। न्यूनतम वोट की बाध्यता जीत के लिए लागू हुई तो प्रत्याशी ज्यादा सक्रियता से मतदाताओं के बीच जाएंगे।
यह भी तथ्य है कि नोटा को प्रत्याशी मानने से निर्वाचन से जुड़े कुछ सवाल भी उठेंगे। सवाल यह भी कि यदि ‘नोटा’ को सबसे अधिक वोट मिलें, तो सीट रिक्त रहेगी या पुनर्मतदान होगा? अलग-अलग क्षेत्रों में मतदान प्रतिशत और जनसंख्या की संरचना भिन्न होने से विजेता के लिए वोट का कोई मानक लागू करना भी आसान नहीं। लेकिन चुनाव सुधारों की दिशा में ‘नोटा’ को ताकत देने के साथ अहम सुझावों के अमल पर विचार करना ही चाहिए।