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पृथ्वी दिवस विशेष: हरियाली लौटेगी तभी जीवन बचेगा

— डॉ. विवेक एस. अग्रवाल
(पर्यावरण व स्वास्थ्य विषयों के जानकार)

जयपुरApr 22, 2025 / 12:54 pm

विकास माथुर

पिछला साल ऐतिहासिक रूप से सर्वाधिक गर्म रहा और बीते वर्ष के लगभग सभी महीनों ने सर्वाधिक तापमान का कीर्तिमान बनाया। यह भविष्य के लिए गंभीर आशंकाओं की ओर इशारा है। बढ़ते शहरीकरण और उपभोक्तावाद के चलते शनै: शनै: हरियाली कम होती जा रही है। अफ्रीका की ग्रेट ग्रीन सहारा वॉल की तर्ज पर राजस्थान सरकार द्वारा हाल ही अरावली पर्वत शृंखला की लगभग 1600 किलोमीटर लंबाई और पांच किलोमीटर चौड़ाई क्षेत्र में सघन पौधरोपण कर हरित वॉल बनाया जाना प्रस्तावित किया गया है।
गुजरात से राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली के समीप तक फैली अरावली पर्वत शृंखला न सिर्फ मानव अपितु संपूर्ण जैव विविधता के लिए जीवन संजीवनी के रूप में कार्य करती रही है लेकिन विकास और खनन के चलते इसका अत्यधिक हास हुआ है। वैश्विक स्तर पर निरंतर रूप से तापमान की वृद्धि को औद्योगिक युग के प्रारंभ तापमान की तुलना में अधिकतम 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने के लक्ष्य रखे गए हैं। हालांकि इसमें उल्लेखनीय सफलता हासिल नहीं हो पाई है। अरावली क्षेत्र में पौधरोपण कर वन क्षेत्र को पुन: स्थापित करने की कवायद तो सन 1990 से चल रही थी लेकिन लगभग 35 वर्ष के लंबे इंतजार के बाद अब इसकी महत्ता का अहसास हुआ है और प्रारंभिक तौर पर इस बाबत 250 करोड़ रुपए का प्रावधान वर्ष 2025-26 के बजट में किया गया है।
विभिन्न अध्ययनों से यह उभरकर आया है कि अरावली क्षेत्र में प्रदूषण अपने उच्च स्तर पर है और इसकी पृष्ठभूमि में लगभग 51त्न उद्योगों से, 27त्न वाहनों से, 8-10 प्रतिशत फसल को जलाने से विषैली ग्रीनहाउस गैस और कार्बन का उत्सर्जन हो रहा है। इन्हें रोकने का एकमात्र साधन सघन वन क्षेत्र है। इस परियोजना के माध्यम से अरावली क्षेत्र में देसी प्रजाति के पौधे लगाने के साथ जल संरक्षण, प्राकृतिक संसाधनों को संरक्षित करने की दिशा में भी प्रयास किए जाएंगे। हरियाणा और राजस्थान से लगे हुए अरावली क्षेत्रों में पौधरोपण की बदौलत ही वन्यजीव अपना जीवन यापन कर पाते हैं और मारवाड़ क्षेत्र के रेगिस्तान में बढ़ती मरूभूमि को रोकने में भी यह पर्वत शृंखला ही अहम भूमिका निभाती है।
मेवाड़ और गुजरात के क्षेत्रों में अरावली पर्वत शृंखला के रहते ही कच्छ का रण और अन्य पारिस्थितिकी अपने मूल स्वरूप में कायम रहती है। बीते दशकों में हुए क्षरण के कारण जहां मरुस्थलों का विस्तार हुआ है, वही वन्यजीवों में भी कमी आई है। अरावली से ही यमुना की सहायक बनास और साहिबी तथा कच्छ के रण की ओर जाने वाली लूनी नदी का प्रारंभ भी होता है। यह नदियां प्रवाह क्षेत्र में आ रहे जनजीवन के लिए जल उपलब्धता का मुख्य स्रोत हैं। हाल में अनेक घटनाएं वन्य जीवों की शहरों की ओर पलायन करने की भी सामने आई हैं। इसके पीछे भी मूलत: वन क्षेत्रों का कम होना ही है। अभाव की अवस्था में वन्यप्राणी शहरों की ओर अपना रूख कर लेते हैं फलस्वरूप दुर्घटनाएं घटित हो जाती है।
मेरा ग्रह, मेरी ताकत को लक्षित इस वर्ष के पृथ्वी दिवस पर यदि हम वन और पर्वत के क्षरण को रोकने में प्रत्यक्ष भूमिका का संकल्प लेते हैं, तभी हम अपनी पृथ्वी को बचा पाएंगे। छोटे से प्रयास के रूप में स्थानीय संसाधनों का औचित्यपूर्ण तरीके से उपयोग, पेड़ों की कटाई को रोकने के लिए प्रतिरोध तथा प्राकृतिक संसाधनों का मात्र आवश्यकता के अनुरूप ही उपयोग करने का यत्न हर इंसान को करना होगा। तभी उसके व्यापक प्रभाव सम्पूर्ण पृथ्वी के स्तर पर देखने को मिलेंगे।

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