इन आंसुओं का आकलन सही संदर्भ में किया जाना चाहिए। यह चुप्पी एक बच्ची की चुप्पी है, जिसे वयस्क महिला की चुप्पी के समान नहीं माना जा सकता। सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को दिए फैसले में इस बात पर हैरानी जताई कि हाईकोर्ट ने मात्र 6 पन्नों के आदेश में ट्रायल कोर्ट के एक सुविचारित फैसले को खारिज कर दिया और आधार यह बताया कि पीड़िता ने जिरह के दौरान रो रही थी।
हाईकोर्ट ने आरोपी की सजा को यह कहते हुए निरस्त कर दिया था कि पीड़िता ने अपनी गवाही के दौरान कोई बयान नहीं दिया और इसलिए प्रत्यक्ष साक्ष्य के अभाव में आरोपी को संदेह का लाभ दिया जाना चाहिए। हाई कोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में राज्य सरकार की ओर से चुनौती दी गई। सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस संजय करोल की पीठ ने हाई कोर्ट के फैसले को पलट दिया और कहा कि मेडिकल और परिस्थितिजन्य साक्ष्य आरोपी के दोषी होने की ओर इशारा कर रहे हैं। पीठ ने ट्रायल कोर्ट की ओर से आरोपी को दी गई 7 साल की सजा को बहाल कर दिया।
दुखद है न्याय की प्रतीक्षा
यह घटना 1986 में हुई थी। मामले में हाईकोर्ट में अपील 1987 में दायर की गई थी, लेकिन इस पर फैसला 2013 में आया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह अत्यंत दुखद है कि नाबालिग और उसके परिवार को चार दशक तक इस भयावह घटना के दर्द और न्याय की प्रतीक्षा में गुजारने पड़े।