सीतामाता अभयारण्य में सालर के पेड़. संरक्षण व संवर्धन की दरकार
कुछ वर्षो से कम हो रही है पेड़ों की संख्या


सीतामाता अभयारण्य में सालर के पेड़. संरक्षण व संवर्धन की दरकार
प्रतापगढ़. जिले का सीतामाता अभयारण्य जैव विविधताओं का संगम है। यहां पाए जाने वाले औषधीय पेड़-पौधों में सालर के पेड़ भी बहुतायत पाए जाते है। इसके तने से गोंद निकलता है। जो लोबान के नाम से जाता जाता है। लेकिन अब इस पेड़ की संख्या में दिनों-दिन कमी होती जा रही है। देखने में आया है कि प्राकृतिक अनुपात गोंदल व सालार का समान ही है। लेकिन यह अनुपात अब बिगडऩे लगा है। इसका कारण रुदावानल व वनोपज संग्रहन से वनवासियों का उदासीन होना। जिससे इसके पेड़ के संरक्षण पर ध्यान नहीं जाता है। इसके अलावा इस पेड़ के कम होंने का कारण अति अंधविश्वास भी है। जिसके चलते इस पेड़ में आग भी लगा दी जाती है। इस वृक्ष का संरक्षण और संवर्धन किया जाना चाहिए।
स्थानीय भाषा में सालार से है पहचान
जंगल मे पाए जाने वाले खूबसूरत और खुशबूदार यह वृक्ष राजस्थान के अरावली की पहाडिय़ों में अच्छे घनत्व में पाया जाता है। इसके लिए अरावली पहाड़ इतने उपयुक्त है कि इसके गोंदल के साथ मिश्रित वन भी पाए जाते हैं। इसे स्थानीय भाषा मे सालर या हालर के नाम से जाना जाता है। यह पेड़ लोबान की एक प्रजाति है। इसी कारण भारतीय लोबान भी कहा जाता है। इसका संस्कृत नाम शल्लकी है। सलाई गुग्गल को लोबानए कुंदरूए मुकुंदरु भी कहा जाता है।होता है औषधीय महत्व मध्यम आकार के इस पेड़ की छाल धूसर, पीली, लालिमा लिए हुए कुछ हल्की गुलाबी कही-कहीं राख के रंग की धूसर और कागज की तरह परत उतरने वाली होती है। यह पेड़ औषधीय महत्व का तो है ही, लेकिन अरावली के लिए इसका पारिस्तिथिकीय महत्व भी कम नहीं है। छोटे सफेद सुंदर फूलों वाले इस वृक्ष के फल तोते व अन्य पक्षी बड़े चाव से खाते हैं और हाथी को इसके पत्ते भी प्रिय होते हैं।
आयुर्वेद समेत कई कार्यों में होता है प्रयोग
इस पेड़ पर गर्मियों में इससे गोंद निकलता है। जो लोबान, गुग्गल प्राप्त किया जाता है। जो आयुर्वेदीय औषध निर्माण, देवकार्य में धूम्र आदि में काम आता है। इसकी सुगन्ध बहुत मनमोहक, गम्भीर, सकारात्मक ऊर्जा देने वाली, वातावरण को शुद्ध करने के साथ विषाणुओं को खत्म करने वाली होती है। इसका उपयोग इत्र निर्माण में भी किया जाता है, इसके तेल को ऑर्गेनिक परफ्यूम्स की ब्लेंङ्क्षडग के काम मे भी लिया जाता है। आज भी आदिवासी लोग इसके गोंद का उपयोग देवताओं की धुपन में, पशुओं के बीमार होने पर उनके पास इसका धुआं करने में करते हैं।
काफी हल्की होती इसकी लकड़ी
इन पेड़ों की लकड़ी का उपयोग माचिस की तीली बनाने में भी किया जाता है। इसकी लकड़ी हल्की और सॉफ्ट होती है।विश्वभर में कई प्रजातियां
समूचे एशिया और अफ्रीका में इसकी कई प्रजातियां पाई जाती है। सालार के वृक्ष राजस्थान, मध्यप्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश के कुछ हिस्सों में भी पाया जाता है।
प्रतापगढ़ जिले के इन इलाकों में बहुतायत
सबसे अव्वल दर्जे का सलाई गोंद अरावली पर्वत पर पाए जाने वाले वृक्षों का है। यह वृक्ष सीतामाता अभयारण के रास्तों मे, प्रतापगढ़ से बांसी के मार्ग व बांसवाड़ा मार्ग पर सेमलिया से पीपलखूंट के रोड के किनारे और जंगल में सूखे पहाड़ो पर इसे आसानी से देखा जा सकता है। दर्द निवारक दवा भी
इसमें पाया जाने वाला बोसवेलिक एसिड सूजन को कम करने के गुण रखता है। हड्डियों को जोड़ों के दर्द में यह उपयोगी है। तथा जोड़ों को बल भी देता है।द्य इसका सीमित धूम्र सेवन से सर्दी, जुकाम, अस्थमा, कफ व संक्रामक रोगों में लाभ पहुंचाता है। यह एक अच्छा दर्द निवारक भी है। साथ ही यह मानसिक तनाव, अवसाद, मधुमेह, गठिया, शोथ, कैंसर, कोलेस्ट्रॉल, त्वचा रोग से मुक्ति पाने में भी यह उपयोगी है।
पेड़ों का संरक्षण आवश्यक
सीतामाता अभयारण्य में कई औषधीय पेड़-पौधे पाए जाते है। जो गत कुछ वर्षों से कम होते जा रहे है। ऐसे में कई पेड़ तो काफी कम होने लगे है। इसके लिए वन विभाग और पर्यावरणविदें को भी इसके लिए मुहिम चलानी होगी। जिससे विभिन्न महत्व वाले प्रजातियों को संरक्षण हो सके।
मंगल मेहता, पर्यावरणविद्, प्रतापगढ़.
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