विरोध का हिंसक रूप सौहार्द बिगाडऩे वाला
देश की संसद द्वारा पारित वक्फ संशोधन कानून राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद लागू भी हो गया है। कानून के समर्थन व विरोध को लेकर संसद से लेकर सड़क तक सियासत भी खूब हुई है। कानून के विरोध में पश्चिमी बंगाल के मुर्शीदाबाद की हिंसा से लेकर असम, बिहार, यूपी समेत देश के कुछ हिस्सों […]


देश की संसद द्वारा पारित वक्फ संशोधन कानून राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद लागू भी हो गया है। कानून के समर्थन व विरोध को लेकर संसद से लेकर सड़क तक सियासत भी खूब हुई है। कानून के विरोध में पश्चिमी बंगाल के मुर्शीदाबाद की हिंसा से लेकर असम, बिहार, यूपी समेत देश के कुछ हिस्सों में सामाजिक समरसता को बिगाडऩे वाला जो माहौल बना है, वह सचमुच चिंताजनक है। चिंता की बात यह है कि इस मसले को साम्प्रदायिकता का रंग देकर अपने बयानों से आग में घी डालने का काम वे कर रहे हैं, जिन पर सद्भावना बनाए रखने की जिम्मेदारी है। लोकतंत्र में सबको अपनी बात कहने का हक है, इसीलिए समर्थन व विरोध की बातें नई नहीं है। लेकिन विरोध प्रदर्शन को हिंसा का रूप देना तो कतई उचित नहीं कहा जाएगा। पश्चिमी बंगाल के मुर्शीदाबाद में तो इस कानून के विरोध को लेकर हुई हिंसा ने पीडि़त लोगों को पलायन करने को मजबूर कर दिया। हिंसा को लेकर भारतीय जनता पार्टी ममता बनर्जी सरकार को घेर रही है, वहीं टीएमसी के नेता इसके लिए भाजपा को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं।
पश्चिम बंगाल ही नहीं बल्कि बिहार, असम, यूपी व देश के कुछ अन्य हिस्सों में भी प्रदर्शन के दौरान आगजनी व मारपीट की घटनाएं साम्प्रदायिकता का रूप लेती नजर आ रही हैं। यह तो तब है जब वक्फ संशोधन कानून का मसला देश की सबसे बड़ी अदालत सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच चुका है। कानून के प्रावधान संविधान का उल्लंघन करते हैं या नहीं, इस पर काफी बहस के बाद ही संसद ने इस कानून को पारित किया है। फिर भी कोई कमी-खामी रही होगी तो इसका फैसला शीर्ष अदालत को करना है। लेकिन पश्चिम बंगाल और झारखंड जैसे प्रदेशों में सत्तारूढ़ दलों की तरफ से ही यह खुलकर कहा जाने लगा है कि वे इस कानून को अपने प्रदेश में लागू नहीं होने देंगे। ममता बनर्जी ने तो यहां तक कह दिया कि यह कानून केन्द्र ने बनाया है और इसका जवाब भी मोदी सरकार से ही मांगा जाना चाहिए। चिंता की बात यही है कि हमारे यहां ऐसा माहौल उस समय ज्यादा बनता है जब वैचारिक मतभेदों को राजनीतिक दल साम्प्रदायिक रंग देना शुरू कर देते हैं।
हर मुद्दे को साम्प्रदायिकता के चश्मे से देखने का सियासत में चलन सा होने लगा है। खासतौर से चुनावों के मौके पर इसमें ज्यादा उभार आता है। सब जानते हैं कि इसी वर्ष बिहार में विधानसभा चुनाव है तो बाद में पश्चिम बंगाल में भी होने हैं। ऐसे में राजनीतिक दलों व नेताओं के लिए वोट बैंक साधने की मजबूरी भी है। लेकिन वोट बैंक की चिंता करने के नाम पर उकसाने वाली बयानबाजी माहौल को बिगाडऩे का काम ही करती आई है। सबसे बड़ी जिम्मेदारी राजनीतिक दलों की है कि वे देश में साम्प्रदायिक सद्भाव बिगाडऩे के प्रयासों का साथ नहीं दें। विरोध के लिए अहिंसक आंदोलन का रास्ता सदैव खुला रहता है। हिंसा किसी भी समस्या का समाधान नहीं कहा जा सकता। हर समस्या का हल संवाद से ही निकल सकता है।
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