तमिल और हिंदी भाषा के बीच रही बेहद समृद्ध परम्परा
डॉ. विनोद यादव, शिक्षाविद् व इतिहासकार, नई दिल्ली


भारत में भाषा एक ऐसा मुद्दा है, जिस पर धैर्य, संयम और सावधानीपूर्वक नीतियां निर्धारित करनी चाहिए, क्योंकि यह महज परस्पर संवाद और संपर्क का मसला नहीं है। बल्कि एक ऐसा भावनात्मक मुद्दा है, जो पहचान और स्वाभिमान दोनों से जुड़ा हुआ है। इन दिनों तमिलनाडु और केंद्र सरकार के बीच नई शिक्षा नीति के तहत त्रि-भाषा फॉर्मूले को लेकर भाषा विवाद सुर्खियों में है। तमिलनाडु सरकार को राज्य में अंग्रेजी के बढ़ते वर्चस्व से सरोकार नहीं है, पर हिंदी, त्रि-भाषा फॉर्मूले के तहत भी स्वीकार नहीं है। शिक्षाविदों व भाषाई विशेषज्ञों की राय के मुताबिक अंग्रेजी वर्चस्ववाद से निपटने के लिए भारतीय भाषाओं को एक-दूसरे के निकट आने की अति आवश्यकता है।
गत वर्ष दिल्ली विश्वविद्यालय के शताब्दी समारोह में शामिल होने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मेट्रो-ट्रेन में सफर कर समारोह स्थल पहुंचे। सहयात्री के रूप में छात्रों से बातचीत करते समय प्रधानमंत्री ने उनकी भाषा संबंधी जानकारी ली और उन्हें प्रोत्साहित करते हुए कहा कि उन्हें अन्य राज्यों की भाषाएं भी जाननी और सीखनी चाहिए। ग्रामीण पृष्ठभूमि के छात्रों के प्रतिभा संपन्न होने, परंतु उनके समग्र विकास न हो पाने को लेकर उन्होंने कहा कि हमें ध्यान रखना चाहिए कि भाषा किसी भी प्रकार से प्रतिभा के विकास में बाधक न बने। बहरहाल, भारतीय भाषाओं के बीच किसी प्रकार का वैमनस्य नहीं होना चाहिए। हर भारतीय को मातृभाषा के अलावा एक भाषा और सीखनी चाहिए। स्वाधीनता के पहले हिंदी और तमिल के बीच इतना अधिक साहचर्य था कि 1910 में मद्रास से काशी आकर बी. कृष्णस्वामी अय्यर ने घोषणा की थी कि हिंदी ही भारत की राष्ट्रभाषा हो सकती है। तमिल और हिंदी भाषा के बीच बेहद समृद्ध परंपरा थी। जयशंकर प्रसाद की कालजयी कृति ‘कामायनी’ और ‘आंसू’ दोनों के अनुवाद तमिल में प्रकाशित हुए थे। मुंशी प्रेमचंद के उपन्यास ‘सेवासदन’ का भी तमिल में अनुवाद हुआ था और इस उपन्यास पर तमिल में एक फिल्म भी बनी थी। सुब्रहमण्यम भारती की रचनाओं का हिंदी में अनुवाद हो रहा था। तमिल के सुप्रसिद्ध महाकवि कंबन की रामायण का हिंदी अनुवाद बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना से हुआ था।
महात्मा गांधी द्वारा 1918 में स्थापित दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा आज भी हिंदी सिखाने में सक्रिय है और उससे हिंदी पढऩे वालों में 65 प्रतिशत तमिलभाषी हैं। उल्लेखनीय है कि हिंदी को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी जितनी भारतीयों पर है, उतनी ही भारत वंशियों पर भी है। ब्रिटेन में तो कई शब्द बहुतायत में इस्तेमाल होते हैं। लंदन यूनिवर्सिटी के विभाग स्कूल ऑफ ऑरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज में तो हिंदी पढऩे वाले बहुत सारे छात्र अंग्रेज हैं। इन सबसे आशय स्पष्ट होता है कि दुनियाभर में हिंदी का समाज समृद्ध हो रहा है। यूरोप और अमरीका में रहने वाले भारतीय हिंदी में वार्तालाप करना पसंद करने लगे हैं। हिंदी को लेकर उनमें, जो पूर्वाग्रह बना रहता था, वह अब समाप्त हो गया है। पिछले एक दशक के दौरान हिंदी के प्रचार-प्रसार में प्रौद्योगिकी ने बहुत मदद की है। इंटरनेट की वजह से बहुत सारे लोग हिंदी से जुड़ रहे हैं। भारत से प्रकाशित होने वाली ऑनलाइन पत्रिकाएं दुनियाभर में पढ़ी जा रही हैं। साहित्यकार विष्णु प्रभाकर कहते हैं कि हिंदी के भविष्य को लेकर चिंतित होने की जरूरत नहीं है। देवनागरी लिपि को अपनाने से अनेक सांस्कृतिक विरोधाभासों का समाधान संभव हो सकेगा।
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