धनखड़ का सुप्रीम कोर्ट पर हमला
उपराष्ट्रपति धनखड़ ने अपने भाषण में सुप्रीम कोर्ट के कुछ फैसलों पर तीखी आलोचना की। उन्होंने 1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल के दौरान सुप्रीम कोर्ट की भूमिका पर सवाल उठाए। धनखड़ ने आपातकाल को “लोकतांत्रिक इतिहास का सबसे काला दौर” करार देते हुए कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने नौ हाई कोर्ट के फैसलों को पलटकर मौलिक अधिकारों को निलंबित करने का समर्थन किया था। उन्होंने कहा, “सुप्रीम कोर्ट ने खुद को मौलिक अधिकारों का एकमात्र निर्णायक मानते हुए उन्हें निलंबित कर दिया, जो कि लोकतंत्र के लिए गलत था।” धनखड़ ने संविधान की प्रस्तावना को लेकर सुप्रीम कोर्ट के दो ऐतिहासिक फैसलों में कथित विरोधाभासों की भी आलोचना की। इसके अलावा, उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 142 पर भी निशाना साधा, जो सुप्रीम कोर्ट को विशेष परिस्थितियों में “पूर्ण न्याय” के लिए आदेश पारित करने की शक्ति देता है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने इस अनुच्छेद का उपयोग करते हुए राष्ट्रपति और राज्यपालों को विधानसभाओं द्वारा पारित बिलों को मंजूरी देने के लिए समयसीमा तय करने का आदेश दिया था। धनखड़ ने इसे “लोकतांत्रिक शक्तियों के खिलाफ परमाणु मिसाइल” करार देते हुए कहा कि यह अनुच्छेद न्यायपालिका के लिए “24×7 उपलब्ध” है।
निशिकांत दुबे का विवाद और बीजेपी की प्रतिक्रिया
धनखड़ का यह बयान बीजेपी सांसद निशिकांत दुबे और अन्य नेताओं के हालिया बयानों के बाद आया है, जिन्होंने सुप्रीम कोर्ट पर “न्यायिक अतिरेक” का आरोप लगाया था। दुबे ने कहा था, “सुप्रीम कोर्ट अपनी सीमा से बाहर जा रहा है। अगर हर चीज के लिए सुप्रीम कोर्ट जाना पड़े, तो संसद और विधानसभाओं को बंद कर देना चाहिए।” उनके इस बयान की विपक्ष और कानूनी विशेषज्ञों ने तीखी आलोचना की थी। हालांकि, बीजेपी ने आधिकारिक तौर पर इन बयानों से दूरी बनाते हुए इन्हें “सांसदों के निजी विचार” करार दिया और कहा कि पार्टी ऐसे बयानों को “पूरी तरह खारिज” करती है।
संवैधानिक संतुलन पर बहस
धनखड़ और दुबे के बयानों ने विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच शक्तियों के संतुलन पर नई बहस छेड़ दी है। धनखड़ ने अपने बयान में यह भी स्पष्ट किया कि एक संवैधानिक पदाधिकारी के रूप में उनके हर शब्द “राष्ट्रीय हित” से प्रेरित हैं। हालांकि, उनके इस रुख की आलोचना करने वालों का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट की स्वतंत्रता और उसकी संवैधानिक भूमिका पर इस तरह के सार्वजनिक हमले लोकतांत्रिक संस्थानों की गरिमा को कमजोर कर सकते हैं।