International Women’s Day: देश की वो महिलाएं जो बनी समाज की आवाज, जानिए संघर्ष की कहानी
Women’s Day Special: महिला सशक्तिकरण से ही समाज में समानता और न्याय की स्थापना होती है, क्योंकि जब महिलाएँ आत्मनिर्भर होती हैं, तो समाज और राष्ट्र भी प्रगति की ओर बढ़ते हैं। महिला दिवस पर, हम महिलाओं की अनगिनत उपलब्धियों और संघर्षों को सलाम करते हैं, जो हर दिन समाज को बेहतर बनाती हैं।
International Women’s Day: महिलाओं में जज्बे का ज्वार है तो फैलाद सी इच्छाशक्ति भी। घर-परिवार, बिजनेस, शिक्षा या अंतरिक्ष… हर क्षेत्र में उन्होंने पूरी लगन और मेहनत से सफलता के शिखर तक पहुंची। आज महिला दिवस पर आज हम ऐसी महिलाओं के बारे में बताएंगे, जो सुर्खियों से दूर रहकर समाज और वन्यजीवन को दिशा देने, पीडि़त और वंचितों को मुख्यधारा में लाने के लिए दिन-रात मेहनत कर रही हैं। जज्बे और संघर्ष के बूते अलग-अलग क्षेत्रों में सेवा और समर्पण के नए प्रतिमान गढ़ रही हैं।
बचपन में गंभीर अग्नि हादसे का शिकार हुई प्रेमा को 14 सर्जरी के बाद नया जीवन मिला। जिस मेडिकल कॉलेज में सर्जरी हुई, उसी में आगे चलकर वे सर्जन और एचओडी बनीं। खुद ने पीड़ा भुगती तो बर्न पीडि़तों के लिए ‘अग्नि रक्षा’ एनजीओ बनाया। इसमें अब तक वह 25 हजार से ज्यादा बर्न पीडि़तों की मुफ्त सर्जरी कर चुकी हैं। 2024 में इन्हें पद्मश्री से सम्मानि किया गया। प्रेमा ने अभी तक 25 हजार से ज्यादा बर्न पीडि़तों का जीवन बचाया।
मां ने ठाना डॉक्टर है बनाना बेंगलूरु की प्रेमा तब आठ साल की थी। एक दिन किचन में खेलते समय स्टोव फटने से गंभीर रूप से झुलस गई। चेहरा, गर्दन और शरीर का लगभग 50 फीसदी हिस्सा जल गया। परिवार इलाज के लिए एक महीने तक भटकता रहा। आखिर तमिलनाडु के वेल्लोर में क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज में 12 घंटे की जटिल सर्जरी हुई। सर्जरी के बाद आंखें खोली तो मां ने कहा, तुम्हें डॉक्टर बनना है। एक इंटरव्यू में डॉ. प्रेमा धनराज ने बताया कि जब मेरी सर्जरी चल रही थी तो मां ईश्वर से दुआ कर रही थी कि यदि बेटी का जीवन बचा तो वह उसी अस्पताल में डॉक्टर बनाएंगी और वह लोगों की सेवा करेगी। चेहरा खराब हो गया था, इसलिए बच्चों की घूरती नजरों को आदत में ढाल लिया, क्योंकि संकल्प बड़ा था। आखिर वह दिन आया, 1989 में प्रेमा सर्जन के रूप में क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज में आईं और मां का वादा पूरा किया। यहां वह प्लास्टिक और रिहेब विभाग की प्रमुख बनीं।
पुरस्कार राशि से खोला एनजीओ डॉ. प्रेमा को 1998 में अमरीका से बतौर पुरस्कार 10 हजार डॉलर मिले थे। इस रकम से उन्होंने बर्न पीडि़तों की मदद के लिए 1999 में एनजीओ ‘अग्निरक्षा’ शुरू किया। इसमें अब तक 25 हजार से ज्यादा जले हुए लोगों का इलाज और रिहेबिलिटेशन किया गया।
2. पार्वती बरुआ (71)
आमतौर पर पुरुषों को हाथियों के महावत के रूप में देखा जाता है, लेकिन असम के शाही परिवार में जन्मीं पार्वती बरुआ ने इस सोच को बदला। वह महज 14 वर्ष की उम्र में हाथियों को काबू और प्रशिक्षित करने लगी थीं और हाथियों के कल्याण में ही अपना जीवन समर्पित कर दिया। 2024 में उन्हें वन्यजीव संरक्षण में उल्लेखनीय कार्य के लिए पद्मश्री पुरस्कार से नवाजा।
600 से ज्यादा हाथियों को प्रशिक्षित देश में इंसान-हाथी संघर्ष में हर वर्ष औसतन 500 लोगों की जान चली जाती है। ऐसे ही कभी शिकारियों के हमले तो कभी पटरियों पर गुजरने के दौरान बड़ी संख्या में हाथियों की मौत हो जाती है। हाथियों की इस दशा से व्यथित पार्वती ने हाथियों को अपना मित्र बनाया। इसलिए उन्हें हस्तिर कन्या (हाथियों की बेटी) भी कहा जाता है। हाथियों के कल्याण और हादसे रोकने के लिए उन्होंने तीन राज्य सरकारों के साथ मिलकर काम किया। अब तक व 600 से ज्यादा हाथियों को प्रशिक्षित कर चुकी हैं।
पूर्वी असम के धुबरी स्थित गौरीपुर के राजपरिवार की वंशज पार्वती बरुआ कहती हैं, मैंने अपने खूबसूरत लम्हे हाथियों के साथ बिताए हैं। मैं हाथियों के संरक्षण के लिए कार्य करती रहूंगी। पार्वती का कहना है महावत बनने की कला किताबों में पढकऱ नहीं सीखी जा सकती। उन्मादी हाथी को पकडऩा और उसे शांत करना आसान नहीं होता, यह किसी जानकार से ही सीखा जा सकता है।
3. डॉ. विजयलक्ष्मी देशमाने (70)
कैंसर सर्जन और सामाजिक कार्यकर्ता डॉ. विजयलक्ष्मी देशमाने ने समाजसेवा और लोगों की भलाई में अपना जीवन समर्पित कर दिया। वह कर्नाटक कैंसर सोसायटी में निशुल्क चिकित्सा सेवा दे रही हैं। इतना ही नहीं कैसर के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए उन्होंने उल्लेखनीय कार्य किए, जिसके लिए उन्हें इस वर्ष उन्हेें पदमश्री से सम्मानित किया गया।
सेवाभाव में नहीं की शादी डॉ. देशमाने का जीवन संघर्ष और समर्पण की कहानी मिसाल है। कर्नाटक में गुलबर्गा के एक गरीब दलित परिवार में जन्मीं विजयलक्ष्मी का जीवन नितांत कठिनाइयों और चुनौतियों के बीच गुजरा। परिवार की गुजर बसर के लिए झुग्गी में रहकर सब्जियां तक बेचनी पड़ी। लेकिन उनका जज्बा और संकल्प इन चुनौतियों से कहीं बड़ा था। लड़कियों को स्कूल नहीं भेजा जाता था, लेकिन उनकी पिता ने समाज के बंदिशों को हराकर उन्हें स्कूल भेजा। मां ने बेटी की पढ़ाई के लिए अपना मंगलसूत्र तक बेच दिया। विजयलक्ष्मी ने 1980 में मेडिकल की पढ़ाई पूरी की कर्नाटक मेडिकल कॉलेज एमबीबीएस और एमडी की डिग्री ली। गृहस्थी कहीं उद्देश्य में बाधक न बन जाए, इसलिए वे आजीवन अविवाहित रहीं। उनके इरादे जितने नेक हैं, उतना ही सरल उनका जीवन है।
4. शाहीन मिस्त्री (53)
शाहीन मिस्त्री की कहानी दिलचस्प और सभी के लिए प्रेरणा पुंज की तरह है। 18 साल की उम्र थी, अमरीका के टफ्ट्स विश्वविद्यालय में पढ़ाई बीच में छोडकऱ शाहीन दादी के पास रहने के लिए मुंबई आ गईं। मुंबई से ही डिग्री ली। मन में कुछ करने का ज्वार घुमडऩे लगा तो झुग्गियों की राह थाम ली। वह एक घर पर हर दोपहर झुग्गी के बच्चों को पढ़ाना शुरू कर दिया, इसी जगह बाद में पहले ‘द आकांक्षा फाउंडेशन’ की स्थापना की गई।
60 से ज्यादा सेंटरों में पढ़ रहे बच्चे मिस्त्री झुग्गी में बच्चों को पढ़ाती रही और बच्चों की संख्या बढ़ती गई। लेकिन अभी शिक्षा का उजाला और फैलाना था। इसलिए झुग्गी के बाहर भी बच्चों को पढ़ाने के लिए उन्होंने 20 स्कूलों से संपर्क किया कि स्कूल टाइम पूरा होने के बाद उन्हें दो घंटे दे दीजिए, लेकिन बात नहीं बनी। आखिर कोलाबा में एक पुजारी ने पूजास्थल में थोड़ी जगह उपलब्ध करवा दी। इसके बाद वह उस कॉलेज गईं, जहां उन्होंने डिग्री ली। मिस्त्री की पहल पर और कई छात्र, बच्चों को पढ़ाने के लिए तैयार हो गए। आज पूरे मुंबई में 60 से ज्यादा आंकाक्षा सेंटर में वे बच्चों को निशुल्क शिक्षा मुहैया करवा रही हैं।
5. डॉ. मालविका अय्यर (36)
वर्ष 2020 में आज ही के दिन यानी महिला दिवस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘शीइंस्पायर्डअस’ पहल के तहत अपने सोशल मीडिया अकाउंट उन सात खास महिलाओं को सौंपे थे, जिन्होंने अलग-अलग क्षेत्रों में बड़ा काम किया। इनमें एक तमिलनाडु की मालविका अय्यर थीं। एक विस्फोट में अपने दोनों हाथ गंवाने वाली 36 साल की मालविका का जीवन जज्बे, जुनून और हौसले की जीती जागती मिसाल है।
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