हालांकि, इस किले से जुड़ी एक कहानी ये भी कि, यहां 16वीं सदी में 700 रानियों ने एक साथ जौहर किया था। इसके अलावा, किले में पारस पत्थर होने की कहानियां भी प्रचलित हैं।
305 पांच साल पुरानी परंपरा
305 साल पुरानी इस परंपरा की जड़ें भोपाल रियासत से जुड़ी हैं। कहा जाता है कि आखिरी नवाब हमीदुल्ला खान ने यह तोप रायसेन के मुसलमानों को दान में दी थी। तब से यह प्रथा हर साल रमजान में दोहराई जाती है। इसे निभाने की जिम्मेदारी पीढ़ी दर पीढ़ी एक ही परिवार के लोग संभालते आ रहे हैं।
ऐसी होती है तोप चलाने की प्रक्रिया
तोप दागने की प्रक्रिया भी दिलचस्प है। पहले मार्कस वाली मस्जिद की मीनार पर लाल बल्ब जलाकर संकेत दिया जाता है, इसके बाद किले से प्रशिक्षित तोपची तोप दागते हैं। जिला प्रशासन हर साल मुस्लिम त्योहार समिति को सीमित समय के लिए तोप चलाने की लिखित अनुमति देता है। ईद के बाद इस तोप को साफ कर सरकारी गोदाम में रख दिया जाता है।