आज खुस रहे ले जादा मरे के बाद के फिकर!
जादाझन मनखेमन तो आज बर नइ, काली बर जियत दिखई देथें। फेर, ए काली जुअर ह तो ककरो ददा के तको नइ आवय। ‘मनखे ल जिंदगी म खुस रहेे बर जिए बर चाही, मरे के बाद का होही एकर चिंता-फिकर नइ करे बर चाही।’


आज खुस रहे ले जादा मरे के बाद के फिकर!
जिहां चार संग संगी सकलाथें, तहां किसम-किसम के गोठ-बात सुरू हो जथे। कोनो संगवारी ह भजन सुनाथे, कोनो ह ठठ्ठा-दिल्लगी करथे, कोनो ह अपन घर-परिवार के दुख-सुख के बात बताथे, त कोनो-कोनो ह दुनियादारी के गियान बघारे लगथे। अइसने एक संगवारी मंडली के गोठ-बात सुनव।
एकझन संगवारी ह भजन सुनाइस। ‘चोला माटी के राम, एकर का भरोसा चोला माटी के रे। कोनो रिहिस ना कोनो रहे भइया आही सबके पारी, काल कोनो ला छोड़ा नहीं, राजा रंक भिखारी।’ वोहा कहिस- ए भजन ह हमन ल जिनगी के सच्चाई बताथे। मनखे ए भुइंया म जनम धरे हे, त एक दिन जाए ल परही। फेर, वाह रे मनखे! जिनगीभर रपोटो-रपोटो, सकेलो-सकेलो, जोरव-जोरव म लगे रहिथें। सबो जानत हे मनखे खाली हाथ आथे अउ खाली हाथ जाथे। ‘न कफन म खिंसा होवय, न कब्र म तिजोरी।’
दूसर संगवारी कहिस- समे के बलिहारी हे। मनखे के तन ह पांच तत्व पानी, आगी, अकास, धरती अउ हवा से मिलके बने हे। फेर, आज ए सबो जिनिस ल मनखे ल बिसाय बर परत हे। रहे बर भुइंया, आगी बारे बर लकड़ी, माटी तेल, गैस, पीये बर पानी, इलाज बर लहू, आक्सीजन, अकास म उड़ाय बर हवई जिहाज के टिकट। पहिली के समे म मनखे के ए हाल नइ रिहिस।
तीसर संगवारी कहिस- आजकाल के लइकामन तो सियानमन के बात नइ मानंय। समझाथें त उलटा जुबाव देथें। तेकर सेती सियानमन समझाय बर छोड़त हें। ‘जइसे करहीं- वइसे भरहीं, धोखा खाहीं- तभेच चेतहीं।’ ऐहा कोने एक घर-परिवार के बात नोहय, आज तो सबो परिवार, समाज अउ सरकार के इही हाल हे।
चौथइया संगी बोलिस- आज के जमाना म इंसानियत मरत जावत हे। सब अपन सुवारथ म बूड़े हें। अपन मरयादा ल छोड़त हें। सबो ल अपन परकरीति के मुताबिक मरयादा म रहे बर चाही। मरयादा सिरिफ मनखेभर के नइ होवय, बल्किन परकरीति के देय सबो जिनिस के होथे। समुंदर के घलो मरयादा होथे। समुंदर ह अपन मरयादा ल छोड़ दिही त दुनिया म जलपरलय आ जही। नदिया अपन रद्दा बदल देथे त बाढ़ आ जथे। हवा के मरयादा छोड़े से तूफान से सब तहस-नहस हो जथे। चिंगारी ह आग के गोला बन जथे त सब ल जला के राख कर देथे।
‘काल करे सो आज कर, आज करे सो अब। पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगा कब।’ संत कबीरदासजी के ए दोहा ह समे के महत्तम ल बताथे। जादाझन मनखेमन तो आज बर नइ, काली बर जियत दिखई देथें। फेर, ए काली जुअर ह तो ककरो ददा के तको नइ आवय। ‘मनखे ल जिंदगी म खुस रहे बर जिए बर चाही, मरे के बाद का होही एक चिंता-फिकर नइ करे बर चाही।’ फेर, ए कलिजुग म मनखे के मति फिर गे हे, त अउ का- कहिबे।
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