वो याद दोहराई नहीं जाती, बात होते हुई भी बात की नहीं जाती
योगेश मिश्र, वरिष्ठ पत्रकार व स्तंभकार


पांच साल यानी आधा दशक। कह सकते हैं एक लंबा समय। लेकिन इतना भी पुराना नहीं कि कुछ याद ही न रहे। लेकिन पांच साल पहले 24 मार्च से अगले काफी लंबे समय तक जो चला, जो हुआ उसकी याद होते हुए भी याद दोहराई नहीं जाती। बात होते हुए भी बात की नहीं जाती। साल 2020, कोरोना के शुरुआती महीने, शुरुआती डर और 24 मार्च की एक स्याह और सशंकित शाम। दो दिन पहले यानी 22 मार्च को 14 घंटे का ‘जनता कफ्र्यू’ लग चुका था। फिजां में कुछ था, जो बता रहा कि कुछ और बड़ा होने वाला है। और हुआ भी यही। देशव्यापी लॉकडाउन का एलान हुआ, जो जहां था, उसे वहीं ठहर जाने का हुक्म।
ट्रेनें, बसें, फ्लाइट सब बंद। बाजार, दफ्तर, आवाजाही बंद। एक झटके में जिंदगी थम गई। वैसे ही जैसे नोटबंदी के झटके से नोटों की जिंदगी थम गई थी। लॉकडाउन, एक ऐसा शब्द जिसके बारे में कभी फैक्ट्री वालों ने ही सुना था। देश में यूनियनें खत्म होने के साथ-साथ लॉकडाउन शब्द भी प्रचलन से बाहर हो गया था। फिर अचानक सबके लिए आ गया लॉकडाउन- एक अनोखा, रहस्यमय, अपरिचित मंजर। ऐसा कुछ हुआ जिसके बारे में न किसी ने सोचा था, न जिसकी कोई कल्पना थी। यहां तक कि कल्पना लोक की कथाएं गढऩे वालों की कल्पनाएं या सिनेमा की कहानियां तक लॉकडाउन तक नहीं पहुंच सकी थीं। लॉकडाउन, यानी सब लॉक। सब कुछ चारदीवारी में कैद। आना-जाना, मिलना-जुलना बंद। फेरीवालों व गाडिय़ों की आवाजें बंद। दुकानें बंद। घर से निकलना बंद। किसी का घर पर आना बंद। मोहल्ले के पार्कों में टहलना बंद। कोरोना के अलावा कुछ और सोचना समझना भी बंद।
आवाज आती थी तो सिर्फ एम्बुलेंसों की। 24 घंटे एम्बुलेंसों की दिल दहलाते सायरनों की। फोन आते थे तो खैरियत कम पूछी जाती, काल के गाल में चले गए लोगों की सूचनाएं ज्यादा दीं जातीं। हालात ऐसे बन गए कि फोन की घंटी सुनते और वॉट्सऐप देखते दिल कांपता था। सिर्फ ऑनलाइन डिलीवरी वाले घर आते थे। वह भी गेट तक। दवा हो या रसद, सब कुछ धोया जाता था। नोट या सिक्के अछूत हो गए थे। ऑक्सीमीटर, ऑक्सीजन सिलेंडर, सेनिटाइजर की ही बात होती। याद है वह दिन जब सबने बर्तन बजाए थे घंटियां, शंख, ड्रम, जो मिला उससे आवाजें की थीं। वह रात जब घरों के बाहर दिये जलाए थे। जब लाखों लोग सडक़ पर पैदल सैंकड़ों हजारों किलोमीटर चलते चले गए…
याद सब कुछ है, पर अब उन पर बात नहीं होती। डर है कि याद करते ही दोबारा न वैसा हो जाए। पांच साल कुछ नहीं होते पर बहुत कुछ भी होते हैं, एक पूरे जीवनकाल में। कैसे हम भुला सकते हैं लॉकडाउन का वह दौर, जिसने हमारी जिंदगी को पूरी तरह बदल डाला। इस दौर में काल को इतने करीब से देख, महसूस कर किसी में मौत का खौफ गहरा गया तो कोई मौत के डर से बाहर निकल गया। लॉकडाउन ने जीवन की नश्वरता से परिचय करा दिया था। उस समय लगता था इस दौर के बाद चीजें बेहतरी की तरफ होंगी। सोशल वैल्यू बढ़ेगी, रिश्तों की अहमियत समझ में आएगी, जिंदगी की कीमत होगी। लेकिन वे सारी उम्मीदें व्यर्थ साबित हुईं। हम जो थे, वो भी न रहे। हमारा समाज पहले से कहीं ज्यादा बिखर गया। सोचने का तरीका बदल गया। सामाजिक अलगाव और भी ज्यादा बढ़ गया। कोरोना वायरस ने तो जानें लीं, परिवार तबाह किए, इकोनॉमी बर्बाद कर दी। लेकिन एक दूसरे अदृश्य वायरस ने जिंदगी जीने के ढंग में दीमक लगा दिया। जो बदल गया वो वापस नहीं आने वाला। बहुत सारी जिंदगियां इन्हीं पांच बरसों में जवान हुई हैं, बहुत सारी इन्हीं बरसों में जन्मीं हैं। बहुत सारी इन्हीं में गुम भी हुई हैं। लॉकडाउन में ऑक्सीजन सिलेंडर को तरसते मरीज। खाली सिलेंडरों, इंजेक्शन के नाम पर पानी, नकली दवा का बेचा जाना। चार कंधे तक नसीब न होना। परिवार होते हुए भी लावारिस मौतें। इंसानी चेहरों का वीभत्स पहलू तक देख लिया, लेकिन दयालु चेहरों की भी कमी नहीं रही। लोगों ने घर-घर राशन-रसद बांटा। किसी को भूखे मरने की नौबत न आने दी। वायरस से तनिक भी डरे बिना लावारिसों की सम्मानपूर्वक अंत्येष्टि की। हजारों किलोमीटर पैदल जा रहे लोगों को खाना पानी दिया। अपने भीतर और अपनों में, झांक कर देखिए सब जगह अब भी लॉकडाउन है।
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