भारतीय संदर्भ में भी पहला सुख निरोगी काया को माना गया है अर्थात् रोग विहीन अथवा रोग मुक्त होना। ऐतिहासिक और सांस्कृतिक रूप से जीवनशैली और वातावरणीय व्यवस्था बचाव की ओर ही लक्षित थी। तथ्य तो यह भी है कि भारत में पहले अस्पताल की स्थापना सन 1664 में चेन्नई में हुई थी, किंतु चरक और सुश्रुत का इतिहास ईसा से 300 से 800 और अधिक वर्ष पूर्व का है। यह नजरिया बाजार में अस्पतालों और विशेष तौर पर निजी अस्पतालों के बढ़ते प्रादुर्भाव के साथ इलाजोन्मुख हो गया। आमजन भी आयुष्मान भारत और समकक्ष योजनाओं द्वारा प्रदत्त चिकित्सा सुविधाओं से स्वयं को संतुष्ट कर लेता है। विडम्बना तो यह भी है कि अस्पतालों की मांग तो आमजन से लेकर नीति निर्धारकों द्वारा विभिन्न स्तरों पर की जाती है, किंतु बीमारियों से बचाव की माकूल व्यवस्था के बारे में चिंतन सतही तौर पर ही किया जाता है।
नीति निर्धारण का मुख्य संचालक बाजार हो गया है। मेडिकल कॉलेज में सामाजिक एवं निवारक चिकित्सा यानी पीएसएम पढ़ाई तो जाती है किंतु उसकी प्रैक्टिस करने का स्थान किसी भी मेडिकल कॉलेज या अस्पताल में नहीं मिलता। फलस्वरूप, सर्वाधिक महत्त्व का विषय होने के बावजूद नेपथ्य में ही रह जाता है। इस विषय के प्रतिफल से भयंकर बीमारियों यथा चेचक, कुष्ठ रोग, पोलियो आदि पर नियंत्रण पाया जा सका था। बाजार के स्वास्थ्य नीति एवं संचालन पर नियंत्रण का एक अजीब उदाहरण दवा और बीमारियों के इलाज संबंधी पदार्थों के निर्माता हैं, जो अपने दोहरे चेहरे के साथ ऐसे पदार्थों का भी निरंकुश रूप से उत्पादन करते हैं, जो स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं। अनेक निर्माता जहां विश्व स्वास्थ्य संगठन की ओर से निर्धारित मानदंडों का उत्पादन में अनुसरण नहीं करते, वहीं दवा लाइसेंस के अतिरिक्त किए जा रहे उत्पादों से होने वाली शारीरिक हानि का रणनीतिक तौर पर सीधा संबंध उत्पादित दवा के विक्रय को प्रोत्साहित करने के लिए भी करते हैं। वर्तमान में गैर संक्रामक रोग जैसे हृदय रोग, कैंसर, डायबिटीज बीमारियां, टीबी और निमोनिया जैसे रोगों के साथ में शीर्ष पर हैं, जिनका वास्तविक नियंत्रण मात्र बचाव से ही किया जा सकता है।
ऐसे में आवश्यकता के बावजूद किसी भी व्यक्ति को बीमारियों से बचाव के लिए परामर्श करने का कोई तय स्थान उपलब्ध नहीं है। यदि स्वास्थ्य पर हो रहे कुल व्यय का अवलोकन करें तो इस वर्ष पिछले वर्ष की तुलना में 13 प्रतिशत बढ़ोतरी कर 90,659 करोड़ कर दिया गया है, इसके बावजूद यह कुल केंद्रीय बजट के 2 प्रतिशत से भी कम है। हालांकि गत वर्षों में प्राथमिक स्वास्थ्य व्यवस्था पर आवंटन कुल स्वास्थ्य बजट का लगभग 60 प्रतिशत रहा है जो दस वर्षों में अपेक्षाकृत रूप से बढ़ा है, लेकिन उसमें भी मूलत: उपचार पर ही व्यय किया गया है। यह इससे इंगित होता है कि आयुष्मान भारत स्वास्थ्य आधारभूत मिशन पर वर्तमान वर्ष में गत वर्ष की अपेक्षा 63 प्रतिशत अधिक व्यय हेतु आवंटन किया गया है जो मूलत: बीमारियों के इलाज की व्यवस्था है। यह ठीक उसी तरह है कि कहीं निरंतर दुर्घटनाएं होती रही हो पर उस ब्लैकस्पॉट को ठीक करने की अपेक्षा दुर्घटनाग्रस्त वाहनों के लिए नए से नए वर्कशॉप खोले जाते रहे हों।
स्वास्थ्य के क्षेत्र में हो रही हर पल प्रगति एवं अनुसंधान पर हालांकि गत वर्ष की अपेक्षा चार प्रतिशत की वृद्धि के साथ लगभग तीन हजार करोड़ रुपए आवंटित किए गए हैं, जो कुल स्वास्थ्य बजट का मात्र तीन प्रतिशत ही है। हालांकि बीमारियों से बचाव के व्यय के आंकड़े शुद्धता के साथ संधारित नहीं किए जाते किंतु उपलब्ध सांख्यिकीय रिपोर्ट के अनुसार भारत में कुल स्वास्थ्य व्यय का लगभग 13.5 प्रतिशत ही बीमारियों के बचाव पर व्यय होता है। इसमें प्रमुखता से टीकाकरण पर किया जाने वाला व्यय भी शामिल है। इसके अतिरिक्त मातृ एवं शिशु स्वास्थ्य पर ही बचाव के लिए फोकस है। इस संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि प्रयासों के बावजूद मातृ, शिशु एवं नवजात मृत्यु दर, अंधता निवारण तथा गैरसंक्रामक रोग नियंत्रण की दिशा में अपेक्षित सफलता प्राप्त नहीं हुई है। यही हाल महिलाओं में खून की कमी का है। पूर्व में निवारक कार्यक्रमों में एक अहम कार्यक्रम गर्भावस्था के दौरान देखभाल का होता था किंतु वह भी कालांतर में अस्पतालीय व्यवस्था के चलते उपचारोन्मुख हो गया। उक्त व्यवस्था में महिलाओं को रिस्क आधारित व्यवस्था के बारे में जागरूक करते हुए गर्भावस्था के उचित समय एवं उस दौरान बरती जाने वाली सावधानियों के बारे में सावचेत किया जाता था।
आधुनिकता के इस दौर में देरी से गर्भधारण, जीवनशैली, आहार एवं बढ़ते मानसिक तनाव के रहते शुरुआती दौर से ही बीमारियों की नींव डल जाती है। जन्म के उपरांत भी बच्चों को बचाव को लक्षित नहीं करते हुए इलाज की ओर मोड़ दिया जाता है। दुर्भाग्यवश शिक्षित वर्ग में भी बीमारियों से बचाव संबंधी जानकारी का अभाव है और यही कारण है की बीमारियों में निरंतर वृद्धि हो रही है। अत: हम सभी को अपनी जीवन पद्धति में आमूलचूल परिवर्तन लाते हुए बीमारी हो ही ना, इस बाबत सार्थक प्रयास करने होंगे। साथ ही नीतिगत स्तर पर बीमारियों से बचाव संबंधी परामर्श केंद्रों की स्थापना के साथ बजट आवंटन का प्रमुख अंश सघन मॉनिटरिंग के साथ रोगों की निवारकता पर व्यय करने की व्यवस्था करनी होगी। अन्यथा अस्पताल और मरीज बढ़ते जाएंगे और बीमारियां अपना जाल फैलाती जाएंगी।