scriptसंपादकीय : कोर्ट जाने से बेहतर सुलह की दिशा में उठे दो कदम | Editorial: Two steps taken towards reconciliation are better than going to court | Patrika News
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संपादकीय : कोर्ट जाने से बेहतर सुलह की दिशा में उठे दो कदम

सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस बी.वी. नागरत्ना ने फैमिली कोर्ट में जाने से पहले सुलह की संभावना तलाशने का विचार दिया है । टूटते परिवारों को बिखरने से रोकने का इससे ज्यादा कारगर जरिया और कोई नहीं हो सकता। अदालतों में पति-पत्नी के बीच विवाद के मामलों की भरमार है। अकेले दिल्ली में ही ऐसे मामलों […]

जयपुरApr 14, 2025 / 10:47 pm

harish Parashar

सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस बी.वी. नागरत्ना ने फैमिली कोर्ट में जाने से पहले सुलह की संभावना तलाशने का विचार दिया है । टूटते परिवारों को बिखरने से रोकने का इससे ज्यादा कारगर जरिया और कोई नहीं हो सकता। अदालतों में पति-पत्नी के बीच विवाद के मामलों की भरमार है। अकेले दिल्ली में ही ऐसे मामलों की संख्या लाख से ज्यादा है। देशभर में तो ये आंकड़े बेहिसाब हैं। अदालतों में सुनवाई की बारी में ही सालों लग रहे हैं। निर्णय की स्थिति तो और ज्यादा समय ले रही है। देशभर में हर साल दो बार लोक अदालतें लगाकर भी पारिवारिक विवाद से जुड़े इन मामलों का निराकरण भी किया जाता है। इसके बावजूद लंबित संख्या चिंताजनक है। केंद्र सरकार ने राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को फैमिली कोर्ट की संख्या बढ़ाने को कह रखा है, लेकिन यह आसान और तुरत-फुरत अमल में लाने वाली व्यवस्था नहीं है। इसमें कोर्ट, जज, स्टाफ और कई अन्य वित्तीय साधन-संसाधनों की जरूरत होती है। जितने कोर्ट नहीं बढ़ते हैं, उनसे कई गुना ज्यादा मामले बढ़ जाते हैं। इन हालात में सबसे बेहतर उपाय यही हो सकता है कि मामलों को फैमिली कोर्ट तक पहुंचने से पहले ही सुलझा लिया जाए। जितना समय और श्रम फैमिली कोर्ट में लगते हैं, उससे कम समय व श्रम सुलह में खर्च कर दिया जाए तो नतीजे निश्चित तौर पर उत्साहजनक होंगे। ऐसा नहीं है कि सुलह की गुंजाइश के लिए कोई व्यवस्था मौजूदा तंत्र में है ही नहीं। लेकिन इसे और मजबूत करने की जरूरत है।
पुलिस और न्यायालय दोनों स्तर पर सुलह की संभावना खोजने का वैचारिक तंत्र बना हुआ है। पुलिस में मामला जाता है, तो तीन-चार स्तर पर दोनों पक्षों को समझाया जाता है। जब समझाने के सारे स्तर नाकाम हो जाते हैं, तभी उसेे मुकदमा बनाकर न्यायालय को सौंपा जाता है। पति-पत्नी के बीच के विवाद के अधिकांश मामले जो पुलिस व फैमिली कोर्ट तक पहुंचते हैं उनमें अधिकांश में विवाद का कारण बहुत जटिल नहीं होता। छोटे-छोटे अहम और तात्कालिक आवेश में किए गए फैसले ऐसे मामलों के उपजने के कारण बन जाते हैं। पति फिल्म नहीं दिखाता, आइसक्रीम नहीं खिलाता, पत्नी, घर आनेे पर मुस्करा कर स्वागत नहीं करती जैसी छोटी और मन को न लगानेे योग्य बातें भी ऐसे विवादों का कारण रही हैं। लोक अदालतों में सुलझाए जाने वाले ऐसे कारणों वाले मामलों की लंबी फेहरिस्त रहती है। कई बार क्षणिक आवेश की परिणति में परिवार बिखर जाता है। हमारे देश का, जो सामाजिक ढांचा और ताना-बाना मजबूत व दुनिया में अनुकरणीय माना जाता है, तो इसकी प्रमुख वजह हमारा परिवार ही है। कालांतर में दुनिया की चकाचौंध और महत्वाकांक्षा की अंधी दौड़ ने परिवार नाम की हमारी संस्था की जडें़़ हिलाई हैं। सुप्रीम कोर्ट जस्टिस की चिंताएं इसे लेकर ही हैं। इसलिए इस तंत्र की मजबूती पर काम होना चाहिए।

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