संपादकीय : इलाज के साथ बचाव पर भी ध्यान देने की जरूरत
दार्शनिक डेसिडेरियस इरास्मस ने करीब हजार साल पहले बड़े मार्के की बात कही थी- ‘बचाव इलाज से बेहतर है।’ यानी हमें अपने स्वास्थ्य के इर्द-गिर्द ऐसा सुरक्षा कवच रखना चाहिए कि बीमारियां हमला न करें और इलाज की नौबत ही न आए। उनकी सलाह पर ध्यान न देने का खामियाजा आज सारी दुनिया भुगत रही […]


दार्शनिक डेसिडेरियस इरास्मस ने करीब हजार साल पहले बड़े मार्के की बात कही थी- ‘बचाव इलाज से बेहतर है।’ यानी हमें अपने स्वास्थ्य के इर्द-गिर्द ऐसा सुरक्षा कवच रखना चाहिए कि बीमारियां हमला न करें और इलाज की नौबत ही न आए। उनकी सलाह पर ध्यान न देने का खामियाजा आज सारी दुनिया भुगत रही है। स्वास्थ्य का मसला कुछ ऐसा हो गया है कि ‘मर्ज बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की।’ कोरोनाकाल के बाद स्वास्थ्य को लेकर दुनिया में जितनी चिंताएं जताई जा रही हैं, उतनी पहले देखने-सुनने को नहीं मिली थीं। एक बीमारी का इलाज ढूंढा ही जाता है कि कोई दूसरी बीमारी खतरा बनकर खड़ी हो जाती है। इनसे लाखों-करोड़ों रुपए के चिकित्सा उद्योग को तो भले ही ऑक्सीजन मिल रही है लेकिन दुनिया की आबादी पर आर्थिक बोझ बढ़ता जा रहा है। बीमारियां विकास को बाधित करती हैं और दुनिया की अर्थव्यवस्था गड़बड़ा देती हैं। किसी भी देश की संपन्नता इससे भी आंकी जाती है कि वहां लोग कितने स्वस्थ और खुशहाल हैं। भारत में ‘पहला सुख निरोगी काया’ जैसी कहावत प्राचीन काल से है, लेकिन आधुनिक जीवनशैली की आपाधापी में बीमारियां ग्रहण की तरह काया पर छाती चली गईं। भारत में स्वास्थ्य को लेकर समय-समय पर होने वाले सर्वेक्षणों में चिंताजनक आंकड़े सामने आते रहते हैं। मधुमेह, रक्तचाप और दिल संबंधी बीमारियां तेजी से बढ़ रही हैं।
अस्पतालों में इलाज के दौरान मरीजों और उनके परिजनों को जिन तकलीफों से गुजरना पड़ता है, वे भी किसी लाइलाज बीमारी से कम नहीं हैं। दो साल पहले इन्हीं तकलीफों को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने कड़ी टिप्पणी की थी कि निजी अस्पताल लूट-खसोट का अड्डा बन गए हैं। शिकायतें आम हैं कि निजी अस्पताल अपनी ही दुकानों से दवाइयां खरीदने के लिए मजबूर करते हैं। जांच, मेडिकल उपकरणों, ट्रांसप्लांट आदि को लेकर भी मनमाना शुल्क वसूला जाता है। एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में सरकारी अस्पतालों के मुकाबले निजी अस्पतालों में इलाज सात गुना महंगा है। मरीजों का शोषण रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही केंद्र और राज्य सरकारों को नीति बनाने के निर्देश भी दिए हैं। दरअसल, पूंजीवाद ने चिकित्सा क्षेत्र को कमाई के बड़े मैदान में तब्दील कर दिया है। इस मैदान में पैकेट और डिब्बाबंद खाद्य पदार्थ बेचने वाली कुछ कंपनियों के साथ फार्मा कंपनियां भी खुलकर खेल रही हैं। पहले खाद्य पदार्थों से लोगों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ किया जाता है। फिर इलाज के लिए नई-नई दवाएं बाजार में उतार दी जाती हैं। इस खतरनाक खेल पर अंकुश तभी लगेगा, जब ‘बचाव इलाज से बेहतर है’ को जन आंदोलन बनाया जाएगा। सरकार को स्वास्थ्य सुविधाएं बेहतर और सर्वसुलभ बनाने के साथ इस पर भी ध्यान देना चाहिए कि लोगों को स्वस्थ जीवन जीने का माहौल कैसे मिले। लोग स्वास्थ्य के प्रति जागरूक हो जाएंगे तो हम बड़ी जंग जीत लेंगे।
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