किस मोड़ पर चला गया नुक्कड़ नाटक ?


विश्व रंगमंच दिवस विशेष दुनियाभर में रंगकर्म यानी नाट्य गतिविधियों को प्रोत्साहन देने के लिये हर साल 27 मार्च को विश्व रंगमंच दिवस मनाया जाता है। लेकिन रंगकर्म की एक विधा ऐसी भी है जिसके लिये औपचारिक रंगमंच की आवश्यकता नहीं होती। यह विधा है नुक्कड़ नाटक। 1980 के दशक में भारत में नुक्कड़ नाटक बहुत लोकप्रिय हुए थे। देशभर में जनजीवन से जुड़े विविध मुद्दों को मुखर करने वाले नुक्कड़ नाटकों का प्रदर्शन होने लगा था। इन नुक्कड़ नाटकों के विषय राजनीति से लेकर सामाजिक
प्रसंग तक हुआ करते थे। उन दिनों सफदर हाशमी जैसे नाट्य निर्देशक अपने कलाकारों के समूह के साथ देश भर में नुक्कड़ नाटकों का प्रदर्शन कर रहे थे। इस बात से शायद ही कोई इंकार करे कि उस दौर में जनचेतना जगाने में नुक्कड़ नाटकों
ने बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। दरअसल, नुक्कड़ नाटक के लिए किसी औपचारिक रंगमंच की और अन्य
व्यवस्थाओं की आवश्यकता नहीं होती। कलाकार साधारण लिबास में किसी भी ऐसी जगह पर अपने नाटक का प्रदर्शन कर सकते हैं, जहाँ दर्शकों के जुटने की संभावना होती है या दर्शक उपस्थित रहते हैं। जैसे कोई व्यस्त बाजार, मेला या ऐसी ही कोई
जगह। उस ज़माने में तो नाट्यदलों ने रेलवे प्लेटफॉर्म तक पर नुक्कड़ नाटकों का प्रदर्शन किया था। यों भारत में आधुनिक नुक्कड़ नाटक की शुरूआत 1940 के दशक से देखी जा सकती है। उस समय बंगाल के अकाल के कारण वहाँ के किसानों की स्थिति बहुत दयनीय थी। इंछियन पिपुल्स थियेटर एसोसिएशन नामक संगठन , जिसे इप्टा के नाम से ज्यादा जाना जाता है, के संस्थापकों में से एक बिजेन भट्टाचार्य ने ‘नबन्ना’ नाम से एक नुक्कड़ नाटक लिखा और जगह जगह इसका प्रदर्शन किया। इस नाटक में किसानों के दुखों को आधार बनाया गया था। अपने नएपन और प्रभावशाली प्रस्तुति के कारण यह नाटक बहुत लोकप्रिय हुआ। 1970 के दशक में नुक्कड़ नाटक की विधा देश भर में लोकप्रिय हुई। वह दौर अनेक राजनीतिक और सामाजिक विसंगतियों के कारण अभिव्यक्ति की आजादी पर प्रहार का दौर माना जाता है। आपातकाल ने इन विसंगतियों को बढ़ा दिया। लेकिन नुक्कड़ नाटक ने प्रतीकात्मक तौर पर कथानकों को बुनकर जनता की पीड़ाओं को रेखांकित किया। इस दौर के नुक्कड़ नाटकों का स्वर व्यंग्यात्मक होता था। बहुत सारे नुक्कड़ नाटकों के कथानक तो प्रदर्शन के समय की स्थितियों को देखते हुए कलाकारों द्वारा प्रदर्शन के समय ही विस्तारित किये गये। सवा सेर गेहूं, जनता पागल हो गई है, मशीन, गिरगिट, औरत उस दौर के सबसे लोकप्रिय नुक्कड़ नाटकों में है। स्थिति यह थी कि जनता पर अत्याचार करने वाले लोग नुक्कड़ नाटकों से डरने लगे थे। किसी भी कला का उद्देश्य किसी को डराना नहीं होता । लेकिन कला चाहती है कि दुनिया में सच और सद् का संरक्षण हो। नुक्कड़ नाटक भी मनुष्य, विशेषकर शोषित, उपेक्षित वर्ग के हितों की रक्षा के लिये रचे और खेले जाते रहे। हालत यह हो गई कि सन् 1989 में अपने साथियों के साथ नुक्कड़ नाटक का प्रदर्शन कर रहे सफदर हाशमी की उन लोगों ने हत्या कर दी जिनके स्वार्थों पर सफदर हाशमी की सक्रियता के कारण प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा था।अपराधियों का यह डर ही नुक्कड़ नाटक की ताकत का सबसे बड़ा प्रमाण भी रहा। लेकिन घर- घर में टेलीविजन की उपस्थिति और फिर मोबाइल स्क्रीन के प्रति बढ़ते जनमोह ने नुक्कड़ नाटकों की लोकप्रियता पर प्रतिकूल प्रभाव डाला। कुछ राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक दबाव भी इसके लिये जिम्मेदार रहे। अब विसंगतियों पर प्रहार करने वाले नुक्कड़ नाटकों का प्रतिबद्ध प्रदर्शन करने वाले समूहों की सक्रियता कम हो गई है। हां, सरकारी योजनाओं का प्रचार करने वाले, कुछ सामाजिक विसंगतियों यथा दहेज, अशिक्षा, बाल विवाह आदि के खिलाफ प्रशासन के संरक्षण में प्रदर्शन करने वाले समूह अभी भी सक्रिय हैं। ऐसा नहीं है कि नुक्कड़ नाटक की दुनिया से व्यंग्य और जन हितैषी मुद्दों का लोप हो गया है, लेकिन नुक्कड़ नाटकों की दुनिया में इनकी वो गूंज अब नहीं दिखती, जो 1980 के दशक में दिखती थी।
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