कभी देशभर में अपनी गुणवत्ता के लिए मशहूर रहा कटनी का चूना आज सरकारी नीतियों की बेरुखी और प्रशासनिक उदासीनता के कारण अस्तित्व के संकट से जूझ रहा है। सब्सिडी वाले कोयले की आपूर्ति बाधित होने और भंडारण की जटिल शर्तों ने उद्योग की कमर तोड़ दी है। जिले की 200 से अधिक इकाइयों में से अब केवल लगभग 100 रह गई हैं, जिनमें भी महज 15 इकाइयां संघर्ष करते हुए संचालन में हैं…।
बालमीक पांडेय @ कटनी. जब देश में अंग्रेजों की हुकूमत थी तब कटनी में बड़ी संख्या में चूना भ_ों की स्थापना हुई थी। यहां के चूना से देशभर में इमारतें बनती थीं। अल्फर्टगंज में रंग-पेंट का कारखाना देशभर में शुमार था। चूना उद्योग ने न सिर्फ शहर को पहचान दिलाई थी बल्कि दो दशक पहले तक इस कारोबार में 25 से 30 हजार लोगों को रोजगार मिला था, जब 200 से अधिक इकाइयां क्रियाशील थीं। अब महज 100 इकाइयां जो अधिकांश वेंटीलेटर पर हैं। 15 से 20 इकाइयों में ही उत्पादन चल रहा है। वे भी अब सरकारी नीति के कारण अपने अस्तित्व के लिए लड़ रहीं हैं। पहले 2 हजार टन चूना प्रतिदिन बन रहा था अब महज 150 से 200 टन ही ही बन पा रहा है। कटनी का चूना देश की प्रमुख शुगर मिलों, पेपर मिलों, जलशोधन संयंत्रों, फिशरीज और केमिकल उद्योगों में इस्तेमाल होता रहा है। इसकी शुद्धता और सफेदी देशभर में प्रसिद्ध रही है, अब फीकी पड़ गई है।
इन गांवों में आबाद चूना उद्योग कराह रहे
जिले के टिकरवारा, महगवां, हर्रैया, अमेहटा, रजरवारा, नन्हवारा, बड़ारी, कछगवां, बड़ेरा, पठरा, जोवा, करहिया सहित अन्य गांवों में चूना उद्योग स्थापित हैं। अब महज 15 इकाइयां ही क्रियाशील हैं। इसकी मुख्य वजह उद्योग के लिए तीन माह का छोडकऱ 2017 से अबतक सब्सिडी का कोयला और बेहतर पत्थर की उपलब्धता न होना है।
ऊंट के मुंह में जीरा
चूना उद्योग के लिए प्रतिदिन 200 से 250 टन कोयले का आवश्यकता होती थी, अब 20 टन के आसपास बची है। सरकार द्वारा 40 से 50 टन प्रति यूनिट प्रति माह सब्सिडी वाला कोयला दिया जा रहा था, जिससे बड़ी राहत मिलती थीं, अब तो ऊंट के मुंह में जीरा जैसे हालात हो गए हैं, वह भी नहीं मिल रहा। कारोबारियों को बाजार से 5 हजार रुपए से लेकर 5500 रुपए टन कोयला खरीदना पड़ रहा है, जबकि सरकारी कोयले से उनको दो हजार रुपए तक की प्रतिटन में राहत मिल रही थी।
इसलिए घुट रहा दम
कारोबारियों की मानें तो कोयला समय पर न मिलना, सब्सिडी वाला कोयला न मिलना तो मुख्य वजह है ही साथ ही अच्छी क्वालिटी का लाइम स्टोन नहीं मिल पा रहा है। कारोबारियों की मांग है कि अमेहटा, बड़ारी, नन्हवारा, हरैया, भटूरा, कछगवां, रजरवारा में लाइम स्टोन की खदानें बढ़ाई जाएं। सीमेंट फैक्ट्रियों को बड़ी मात्रा में लाइम स्टोन दिया जा रहा है, छोटे उद्योगों का भी ध्यान रखा जाए।
देशभर में होता था चूना सप्लाई
बता दें कि कटनी के चूना की सप्लाई देशभर में होता है। कई प्रदेशों में खास पहचान बना चुका था। मप्र के साथ उत्तरप्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, झारखंड आदि में सप्लाई होता था। सबसे ज्यादा अमलाई पेपरमिल, नेपानगर, होशंगाबाद, जबलपुर सहित कई बड़े महानगरों में सप्लाई होती थी।
चूने का यह हो रहा उपयोग
चूने का उपयोग सिर्फ खाने और पुताई के लिए नहीं बल्कि कटनी का चूना वॉटर फिल्टर प्लांटों में पानी की सफाई के लिए, शुगर में मिलों में शक्कर साफ करने के लिए, बिल्डिंग मटेरियल के लिए, स्टील प्लांट आदि के लिए सप्लाई हो रहा है।
15 इकाइयां जो चल रही हैं, वे भी लागत में भारी वृद्धि, कच्चे माल की कमी और श्रमिकों के पलायन से जूझ रही हैं, इकाइयों में 80 से 90 फीसदी तक घटा उत्पादन।
वर्ष 2005 तक 250 चूना इकाइयां थीं, 2020 में घटकर रह गईं 100, 2025 तक मात्र 15 से 20 का ही संचालन।
प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से 16 से 18 हजार से अधिक लोगों का रोजगार प्रभावित, पलायन को हुए मजबूर, जो कर रहे उनकी भी हैं समस्याएं।
उद्योग को बढ़ावा देने स्थानीय सांसद और विधायक नहीं देर हे ध्यान, उपेक्षा से उद्योग से जुड़े लोगों में निराशा।
कारोबार प्रभावित होने से सैकड़ों करोड़ का वार्षिक कारोबार प्रभावित, लोगों की आजीविका पर संकट, पलायन और बेरोजगारी बढ़ी।
कोयले की निर्बाध आपूर्ति, सब्सिडी नीति में संशोधन, समय पर उपलब्धता, पेट्रो कोक की अनुमति, भंडारण अनुज्ञा सरल करने से मिलेगी संजीवनी।
कारोबारियों का दर्द
कारोबारियों का तक है कि हमने वर्षों की पूंजी और मेहनत लगाई थी, अब सब डूबता नजर आ रहा हैं। बड़ी इकाइयों के साथ-साथ छोटे कारोबारी भी कर्ज में डूब चुके हैं। मानसिक तनाव और परिवार चलाने की चिंता अब उनके जीवन का हिस्सा बन चुकी है। अर्थशास्त्री राकेश चौबे कहते हैं कि स्थानीय उद्योगों की अनदेखी न केवल आर्थिक नुकसान पहुंचाती है, बल्कि सामाजिक असंतुलन भी उत्पन्न करती है। सरकार को एमएसएमई फ्रेंडली नीतियों की ओर लौटना होगा।
कोयला सब्सिडी का पेंच
सरकार की कोयला सब्सिडी नीति के तहत बड़े उद्योगों को प्राथमिकता दी जा रही है, जबकि कटनी के चूना उद्योग को ऐसा समझा जाए कि अब ‘अनुत्पादक’ श्रेणी में डाल दिया गया है। सब्सिडी वाले कोयले की आपूर्ति रोक दी गई है। कोयला भंडारण के लिए सरकारी अनुज्ञा प्रक्रिया इतनी जटिल है कि छोटे कारोबारी इसके लिए पात्र ही नहीं बन पा रहे। नियमों की पेचीदगियों के साथ-साथ विभागीय भ्रष्टाचार भी इन इकाइयों के लिए एक और मुसीबत बन गया है।
राजस्थान में चूना उद्योग को पेट्रो कोक जैसे सस्ते विकल्प उपलब्ध हैं, जिससे उनकी इकाइयां लाभ में चल रही हैं। वहीं मध्यप्रदेश सरकार के पास ऐसा कोई प्रावधान नहीं है, जो स्थानीय उद्योगों को राहत दे सके। जिला उद्योग केंद्र में दर्जनों बार शिकायतें दर्ज की गईं, लेकिन न कोई ठोस कार्रवाई हुई, न कोई निरीक्षण। कारोबारियों का आरोप है कि अधिकारी बात सुनने तक को तैयार नहीं हैं।
जिलाध्यक्ष ने कही यह बात
बीके भार्गव, जिलाध्यक्ष कटनी जिला चूना उत्पादक संघ का कहना है कि कोयला भंडारण के लाइसेंस लेने में कई तकनीकी परेशानियां हैं। एंड यूजर के लिए इसकी आवश्यकता नहीं होता। सरकारी की नीतियों और प्रशासनिक सहयोग न मिलने के कारण कारोबारियों को नुकसान हो रहा है और उद्योग दम तोड़ रहे हैं।
कलेक्टर का यह है तर्क
दिलीप कुमार यादव, कलेक्टर का कहना है कि चूना उद्योग के लिए कोयला भंडारण के लिए अनुज्ञप्ति नियमानुसार लेनी होगी। सब्सिडी का कोयला आवंटन प्राप्त होने पर नियमानुसार होता है। चूना उद्योग से जुड़ी हुई यदि कोई समस्याएं हैं तो उनको दूर किया जाएगा।
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