रमजान के महीने के तीस दिनों को 3 अशरों (10 दिन) में बांटा गया है। रमजान के पहले 10 दिन को पहला अशरा, दूसरे 10 दिनों को दूसरा अशरा और आखिरी 10 दिन को तीसरा अशरा का जाता है। यानी पहले रोजे से 10वें रोजे तक पहला अशरा, 11वें रोजे से 20वें रोजे तक दूसरा अशरा और 21 वें रोजे से 30वें रोजे तक तीसरा अशरा। पैगंबर साहब (सल्ल.) की एक हदीस है जिसका मफूम है- रमजान का पहला अशरा रहमत वाला है, दूसरा अशरा अपने गुनाहों की माफी मांगने का है और तीसरा अशरा जहन्नम की आग से अल्लाह की पनाह चाहने वाला है। (मफूम) रमजान के पहले अशरे में अल्लाह की रहमत के लिए ज्यादा से ज्यादा इबादत की जानी चाहिए। इसी तरह रमजान के दूसरे अशरे में अल्लाह से अपने गुनाहों की रो-रोकर माफी माँगनी चाहिए। रमजान की तीसरा अशरा जहन्नम की आग से अल्लाह की पनाह माँगने का है।
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मस्जिद बैत-उल-मुकर्रम के इमाम मुफ्ती फैय्याज आलम के मुताबकि, रमजान का हर पल महत्व रखता है। मजहबी तौर पर तो इसके फायदे हैं ही, दुनियावी तौर पर भी रमजान हमें वक्त की पाबंदी, वक्त की कीमत, सच्चाई की कद्र, परहेजगारी, बड़ों का आदर, गरीबों पर रहम आदि कई चीजें सिखाता है और ये संदेश देता है कि इस अभ्यास को अगले ग्यारह महीन चलाना चाहिए।
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उन्होंने बताया कि, रोजा ही एक ऐसी इबादत है जिसमें इंसान और अल्लाह का सीधा संपर्क होता है। क्योंकि अगर कोई नमाज पढ़ रहा है तो दूसरा आदमी देख रहा है। जकात दे रहा है तो इसमें भी एक हाथ देता है लेने वाला दूसरा हाथ सामने रहता है। रोजा की नमाज में अल्लाह और रोजेदार के अलावा तिसरा कोइ नही जानता है की अल्लाह से क्या वार्ता हुई। उन्होंने कहा की रमजान में नहीं बल्कि हमेशा कुरान शरीफ खूब तिलावत करनी चाहिए। नफिल नमाज पढ़नी चाहिए। सारी बुराइयों से दूर रहना चाहिए। यह महीना ऐसा है जो आदमी को आदमी से मिलाते हुए ग्यारह महीनों तक लगातार नेक काम करने बुराई से बचने का अभ्यास कराता है।